Sunday 20 February 2011

राजस्थान की संस्कृति एवं कला-साहित्य

राजस्थान को सांस्कृतिक दृष्टि से भारत को समृद्ध प्रदेशों में गिना जाता है। संस्कृति एक विशाल सागर है जिसे सम्पूर्ण रूप से लिखना संभव नहीं है। संस्कृति तो गाँव-गाँव ढांणी-ढांणी चैपाल चबूतरों महल-प्रासादों मे ही नहीं, वह तो घर-घर जन-जन में समाई हुई है। राजस्थान की संस्कृति का स्वरूप रजवाड़ों और सामन्ती व्यवस्था में देखा जा सकता है, फिर भी इसके वास्तविक रूप को बचाए रखने का श्रेय ग्रामीण अंचल को ही जाता है, जहाँ आज भी यह संस्कृति जीवित है। संस्कृति में साहित्य और संगीत के अतिरिक्त कला-कौशल, शिल्प, महल-मंदिर, किले-झोंपडियों का भी अध्ययन किया जाता है, जो हमारी संस्कृति के दर्पण है। हमारी पोशाक, त्यौहार, रहन-सहन, खान-पान, तहजीब-तमीज सभी संस्कृति के अन्तर्गत आते है। थोड़े से शब्दों में कहा जाए तो 'जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है, वह संस्कृति है।'

ऐतिहासिक काल में राजस्थान में कई राजपूत वंशों का शासन रहा है। यहाँ सभी शासकों ने अपने राज्य की राजनैतिक एकता के साथ-साथ साहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति में योगदान दिया है। ग्याहरवीं शताब्दी में उत्तर पष्चिम से आने वाली आक्रमणकारी जातियों ने इसे नष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु निरन्तर संघर्ष के वातावरण मे भी यहाँ साहित्य, कला की प्रगति अनवरत रही। मध्य काल में राजपूत शासकों के मुगलों के साथ वैवाहिक और मैत्री संबन्धों से दोनों जातियों में सांस्कृतिक समन्वय और मेल-मिलाप रहा कला, साहित्य में विविधता एंव नवीनता का संचार हुआ और सांझी संस्कृति का निर्माण हुआ।

सांझी संस्कृति

राजस्थान के भू-भाग पर आक्रमणों एवं युद्धों का दौर लम्बे समय तक चलता रहा। राजस्थानी जनजीवन में समन्वय एवं उदारता के गुणों ने सांझी संस्कृति को पनपने का अवसर प्रदान किया। धार्मिक सहिष्णुता के परिणामस्वरूप अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में हिन्दू-मुस्लिम एकता के दर्शन होते हैं। जहाँ सभी धार्मिक लोग एकत्र होकर इबादत (प्रार्थना) करते हैं और मन्नत मांगते है। लोक देवता गोगाजी, रामदेवजी के समाधि स्थल पर सभी धर्मानुयायी अपनी आस्था रखकर साम्प्रदायिक सद्भावना का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। राजस्थान के सामाजिक जीवन यथा खान-पान, रहन-सहन, आमोद-प्रमोद और रस्मों-रिवाजों में सर्वत्र हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का समन्वय हुआ है। भोजन में अकबरी जलेबी, खुरासानी खिचड़ी, बाबर बड़ी, पकौड़ी और मुंगड़ी का प्रचलन मुगली प्रभाव से खूब पनपा है। परिधानों में मलमल, मखमल, नारंग शाही, बहादुर शाही कपड़ों का प्रयोग हुआ है। आमोद-प्रमोद में पतंगबाजी, कबूतर बाजी मुगल काल से प्रचलित हुई है। स्थापना कला में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का सम्मिश्रण सांझी संस्कृति उदाहरण हैं। यहाँ के राजा-महाराजाआंे ने मुगली प्रभाव से स्थापत्य निर्माण में संगमरमर का प्रयोग किया। गेलेरियों, फव्वारांे, छोटे बागों को महत्व दिया। दिवारांे पर बेल बूंटे के काम को बढा़वा दिया। चित्रकला की विभिन्न शैलियांे में मुगल शैली का प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि राजस्थानी कला एवं संस्कृति में सांझी संस्कृति के वे सभी तत्त्व मौजूद है जो अपने मूलभूत स्वरूप को बनाए रखते हुए भी नवीनता, ग्रहणषीलता, सहिष्णुता और समन्वय को स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हंै।

मध्यकालीन साहित्यिक उपलब्धियाँ

राजस्थान में साहित्य प्रारम्भ में संस्कृत व पा्र कतृ भाषा में रचा गया। मध्ययुग के प्रारम्भकाल से अपभृंष और उससे जनित मरूभाषा और स्थानीय बोलियां जैसे मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, ढूँढाड़ी और बागड़ी में साहित्य की रचना होती रही, परन्तु इस काल में संस्कृत साहित्य अपनी प्रगति करता रहा।

संस्कृत साहित्य
राजपूताना के विद्यानुरागी शासकांे, राज्याश्रय प्राप्त विद्वानांे ने संस्कृति का सृजन किया है। षिला लेखांे, प्रषस्तियांे और वंषावलियांे के लेखन में इस भाषा का प्रयोग किया जाता था। महाराणा कुम्भा स्वयं विद्वान संगीत प्रेमी एवं विद्वानांे के आश्रयदाता शासक थे। इन्होंने संगीतराज, सूढ़ प्रबन्ध, संगीत भीमांसा, रसिक प्रिया, (गीत गोविन्द की टीका) संगीत रत्नाकर आदि ग्रन्थांे की रचना की थी। इनके आश्रित विद्वान मण्डन ने षिल्पषास्त्र से सम्बन्धित अनेक गन््र थांे की रचना की। जिनमें दवेमूर्तिप्रकरण, राजवल्लभ, रूपमण्डन, प्रसादमण्डन महत्त्वपूर्ण कुंभाकालीन (चित्तौड़गढ़) और कुंभलगढ़ प्रशास्ति (कुंभलगढ) की रचना की। राणा जगतसिंह एवं राजसिंह के दरबार में बाबू भट्ट तथा रणछोड़ भट्ट नामक विद्वान थे, जिन्होंने क्रमषः जगन्नाथराम प्रशस्ति और राजसिंह प्रशस्ति की रचनाएँ की। ये दोनों  प्रशस्तियां मेवाड़ के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है। आमेर-जयपुर के महाराजा मानसिंह, सवाईजयसिंह, मारवाड़ के महाराजा जसवन्तसिंह, अजमेर के चैहान शासक विग्रहराज चतुर्थ तथा पृथ्वीराज तृतीय बीकानेर के रायसिंह और अनूपसिंह संस्कृत के विद्वान एवं विद्वानांे के आश्रयदाता शासक थे। अनूपसिंह ने बीकानेर में ‘अनूप संस्कृत पुस्तकालय’ का निर्माण करवाकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया। विग्रहराज चतुर्थ ने ‘हरिकेलि’ नाटक लिखा, पृथ्वीराज के कवि जयानक ‘पृथ्वीराजविजय’ नामक काव्य के रचयिता थे। प्रतापगढ़ के दरबारी पंडित जयदेव का ‘हरिविजय’ नाटक तथा गंगारामभट्ट का ‘हरिभूषण’ इस काल की प्रसिद्ध रचनाएँ है। मारवाड़ के जसवन्तसिंह ने संस्कृत में भाषा-भूषण और आनन्द विलास नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखें। जोधपुर के मानसिंह ने नाथ-चरित्र, नामक गं्रथ लिखा। मानसिंह को पुस्तकांे से इतना प्रेम था कि उन्होंने काषी, नेपाल आदि से संस्कृत के अनेक गं्रथ मंगवाकर अपने पुस्तकालय में सुरक्षित रखा । आज यह पुस्तकालय मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र के रूप में विख्यात है।

राजस्थानी साहित्य
राजस्थानी समस्त राजस्थान की भाषा रही है जिसके अन्तर्गत मेवाड़ी, मारवाड़ी, ढूढाड़ी, हाड़ौती, बागड़ी, मालवी और मेवाती आदि बोलियाँ आती है। इस भाषा में जैनशैली, चारणशैली, संतशैली और लोकशैली में साहित्य का सृजन हुआ है।

(1) जैनशैली का साहित्य - जैनशैली का साहित्य जैन धर्म से सम्बन्धित है। इस साहित्य में शान्तरस की प्रधानता है। हेमचन्द्र सूरी (ग्यारहवीं सदी) का देषीनाममाला’, ‘षब्दानुषासन’, ऋषिवर्धन सूरी का नल दमयन्ती रास, धर्म समुद्रगणि का ‘रात्रि भोजनरास’, हेमरत्न सूरी का गौरा बादल री चैपाई प्रमुख साहित्य हैं।

(2) चारणशैली का साहित्य - राजपूत युग के शौर्य तथा जनजीवन की झांकी इसी साहित्य की देन है। इसमें वीर तथा शृंगार रस की प्रधानता रही है। चारणषैली में रास, ख्यात, दूहा आदि में गद्य, पद्य रचनाएँ हुई है। बादर ढा़ढी कृत ‘वीर भायण’ चारण शैली की प्रारम्भिक रचना है। चन्दवरर्दाइ  का ‘पृथ्वीराजरासो’ , नेणसी की ‘नेणसीरीख्यात’, बाँकीदास की ‘बाँकीदासरीख्यात,’ दयालदास की ‘दयालदासरी ख्यात’ गाडण शिवदास की ‘अचलदास खींची री वचनिका’ प्रमुख ग्रन्थ हैं जिनमें राजस्थान के इतिहास की झलक मिलती है। दोहा छन्द में ढ़ोलामारू रा दूहा, सज्जन रा दूहा प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इनके अतिरिक्त दुरसा आढ़ा का नाम भी विषिष्ठ उल्लेखनीय है। वह हिन्दू संस्कृति और शौर्य का प्रषंसक तथा भारतीय एकता का भक्त था। बीकानेर नरेष कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ ने ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ नामक ग्रंथ की रचना की, जो राजस्थानी साहित्य का ग्रन्थ माना जाता है। इन गुणांे की ध्वनि इसके गीतों, छन्दों, झुलका तथा दोहा में स्पष्ट सुनाई देती है। सूर्यमल्ल मीसण आधुनिक काल का महाकवि था और बून्दी राज्य का कवि था। इसने ‘वंष भास्कर’ और ‘वीर सतसई’ जैसी उल्लेखनीय कृतियों की
रचना की।

(3) सन्त साहित्य - राजस्थान के जनमानस का े प्रभावित करने वाला सन्त साहित्य बड़ा मार्मिक है। सन्तांे ने अपने अनभ्ु ावों का े भजनों द्वारा नैतिकता, व्यावहारिकता का े सरलता स े जनमानस में पस्र ारित किया ह,ै एसे े सन्तों में मल्लीनाथजी, जाभ्ं ाा े जी, जसनाथ जी, दादू की वाणी, मीरा की ‘पदावली’ तथा ‘नरसीजी रो माहेरो’, रामचरण जी की ‘वाणी’ आदि संत साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

(4) लोकेकेक साहित्य - लोक साहित्य में लोकगीत, लोकगाथाएँ, प्रेमगाथाएँ, लोकनाट्य, पहेलियाँ, फड़ें तथा कहावतें सम्मिलित है। राजस्थान में फड़ बहुत प्रसिद्ध है। फड़ चित्रण वस्त्र पर किया जाता है। जिसके माध्यय से किसी ऐतिहासिक घटना अथवा पौराणिक कथा का प्रस्तुतिकरण किया जाता है। फड़ में एक अधिकतर लोक देवताआंे यथा पाबूजी देवनारायण ने रामदेवजी इत्यादि के जीवन की घटनाआंे और चमत्कारksa का चित्रण होता है। फड़ का चारण भोपे करते हैं। राजस्थान में शाहपुरा (भीलवाड़ा) का फड़ चित्रण राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाये हुए है। भीलवाड़ा के श्रीलाल जोषी ने फड़ चित्रण को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में सहयोग किया। इस कार्य हेतु भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा है। इनमें पाबूजी री फड़, ‘देवजी री फड़’ तीज, गणगौर, शादी, संस्कारांे, मेलांे पर गाये जाने वाले लोकगीत आते है।


2 comments:

  1. Who was the first ever education minister of Rajasthan ?? can any one tellme ....

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