Friday, 26 August 2011

राजस्थानी सामन्त व्यवस्था

राहुल तनेगारिया
सामन्त प्रथा का अर्थ
राजस्थान की सामाजिक व्यवस्था में सामन्त पद्धति का महत्वपूर्ण स्थान है। सामन्त व्यवस्था एक प्रकार की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था का एक रुप था, जिसमें राजा के समान एक नेता होता था और उसके साथ उसके अपने कुल के वंशज या अन्य राजपूत कुल के वंशज उसके साथी और सहयोगी के रुप में रहते थे।

सामन्त प्रथा का स्वरुप
मध्य युग में राजा अपने परिवार के ही किसी योग्य व्यक्ति को सामन्त के पद पर नियुक्तकरता था। इस समय राजा की स्थिति सामन्तों में 'बराबर वालों में प्रथम' के समान था। राजा के निर्वाचन में भी सामन्तों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी।

सामन्त प्रथा की विशेषताएँ
समानता के सिद्धान्त पर आधारित - राजस्थान की सामन्त व्यवस्था पद्धति समानता के सिद्धान्त पर आधारित थी। यहाँ के राजा व सामन्तों के बीच सम्बन्ध दास व स्वामी के सिद्धान्त पर आधारित नहीं थे, अपितु बराबर के सिद्धान्त पर आधारित थे। राजा सामन्त को अपना दास नहीं मानते थे। वे उसे अपने बराबर समझते थे।
सामन्तों का राजा से रक्त सम्बन्ध - राजस्थान के अधिकांश सामन्त ऐसे होते थे, जिनका राजा से रक्तसम्बन्ध का रिश्ता होता था। वे राजा के भाई - बन्धु या सम्बन्धी होते थे, जिसके कारण उन्हें जागीर दी जाती थे। इनके अतिरिक्त कुछ सामन्त ऐसे भी होते थे, जिन्हें राजा उनकी वीरता तथा धार्मिक निष्ठा के कारण जागीर देता था।
राजाओं के साथ उत्थान एवं पतन - राजस्थान के नरेशों का उत्थान और पतन सामन्तों के उत्थान और पतन के साथ होता था। इतिहास इस बात का गवाह रहा है। यहाँ राजा व उसके सामन्तों के बीच प्रतिद्वन्दिता बहुत कम रही है।
स्वामी भक्ति -  राजस्थान के सामन्त हमेशा राजा के प्रति स्वामीभक्त बने रहे हैं। उन्होंने संकट के समय हमेशा राजा का हर प्रकार से सहयोग दिया। इस प्रकार उन्होंने शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने में भी सहयोग दिया।
मध्य काल में सामन्त व्यवस्था का स्वरुप
मुगल शासकों ने राजपूत राजाओं के निर्वाचन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। वे स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार राजा बनाते थे और हटाते थे। इस व्यवस्था से प्रभावित होकर राजपूत राजा भी अपने सामन्त की शक्ति का दमन करने लगे। मुगल सम्राज्य के पतन के बाद राजाओं तथा सामन्तों के बीच संघर्ष की स्थिती आ गई। सामन्तों ने अपने प्राचीन अधिकार पुन: प्राप्त करने का प्रयास किया। अन्त में अंग्रेजों ने ऐसी नीति अपनायी जिससे कि दोनों को कमजोर बनाया जा सके। 




सामन्तों की सेवाएँ एवं शुल्क
सामन्त राजाओं को दो प्रकार से सैनिक सहायता देते थे - युद्धकालीन एवं शान्तिकालीन। युद्ध के समय सामन्त अपने दल - बल सहित शासक की सहायता के लिए जाता था एवं शान्ति के समय राज्य के सामान्य कार्यों के लिए जागीर के अनुसार सैनिक एवं सवार देता था। सैनिक सेवा के संबंध में सभी राज्यों के अलग - अलग नियम बने हुए थे।
सैनिक सेवा -










राज्य
वार्षिक आय रुपये में
सैनिक सेवा
जयपुर
१०००
५००
एक पैदल तथा एक सवार
एक सवार
उदयपुर
१०००
चार पैदल तथा दो सवार
जोधपुर
१०००
७५०
५००
एक घुड़सवार
एक शुतर सवार
एक पैदल
ब्रिटिश संरक्षण के बाद अंग्रेजों ने अनेक बटालियनों की स्थापना की और सम्बन्धित राजपूत राज्यों से इसका खर्च वसूल किया। राजपूत राजाओं द्वारा इस व्यवस्था का विरोध किया जाने लगा, अत: उन्होंने सामन्तों से सैनिक सेवा के बदले में नकद रुपया वसूल किया जाने लगा, जिससे दोनों पक्षों के बीच एक विवाद उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरुप सामन्तों की स्थिति कमजोर होने लगी।
रेख - राजा अपने जागीरद से उत्तराधिकार शुल्क, सैनिक सेवा एवं न्यौता शुल्क आदि का हिसाब - किताब करके, उनसे राजकीय माँग के रुप में कर वसूल करती था, उसे रेखा कहा जाता था। पट्टों में दर्ज रेख के अनुसार अनुमानित आंकड़ों एवं गाँव की वास्तविक आय के मध्य काफी अन्तर आ जाता था, जिससे कि विवाद उत्पन्न हो जाता था।
इस संबंध में रेऊ ने लिखा है - 'यह कर सर्वप्रथम जोधपुर का महाराजा विजयसिंह द्वारा लगाया गया था।'
इस रेख की दर न तो सभी राज्यों में समान थी और न ही इसे प्रतिवर्ष नियमित रुप से वसूल किया जाता था।
रेख की दर



उदयपुर राज्य








ठिकाने का नाम
रेख रुपयों में
१८२७ ई० में कप्तान कॉब के समय
वास्तविक आय रुपयों में
सादड़ी
४३,२५५
१४,८९७
बेदला
५७,८००
४६,४६०
कोठारिया
२९,४००
१८,८९५
देवगढ़ 
६०,१२५
९०,०००
जोधपुर राज्य







ठिकाने का नाम
रेख रुपयों में
महाराजा तख्तसिंह के समय वास्तविक आय रुपयों में
चाणोद
३१,०००
५१,०००
आहोर
२२,६२५
२८,७५०
दासपा
३०,५००
२१,१००
डोडियाना
३३,०००
१५,०००
 
उत्तराधिकार शुल्क - इसके अतिरिक्त यदि किसी जागीरदार की मृत्यु हो जाती थी, तो अस्थायी तौर पर उसकी जागीर जब्त कर ली जाती थी और मृत जागीरदार का उत्तराधिकारी पेशकशी के तौर पर एक रकम अदा करता था, तब उसे उस जागीर का नया पट्टा दिया जाता था। यदि कोई जागीरदार किसी वर्ष रकम नहीं चुका पाता, तो उसे उसे वह अपनी जागीर खालसा के अन्तर्गत रखकर कर से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। परन्तु यह उसके प्रतिष्ठा पर एक प्रकार का आघात होता था। विभिन्न राज्यों में उत्तराधिकार शुल्क अलग - अलग होता था। १८६९ ई० में ब्रिटिश सरकार ने मध्यस्थता कर शुल्क की नयी दर निश्चित की, जिसके अनुसार शुल्क की राशि जागीर की वार्षिक आय की लगभग तीन - चौथाई वसूल की जाती थी।

अन्य शुल्क - इसके अतिरिक्त सामन्त कुछ अनियमित कर भी चुकाते थे। राजा के सिंहासनारोहरण उत्सव पर नजराना, राजा तथा उनके सबसे बड़े पुत्र के विवाह के समय पर नजराना, राजकुमारियों के विवाह के समय न्यौता का रुपया, राजाओं को तीर्थ यात्राओं के समय पर उन्हें भेंट आदि। यह शुल्क राशि भी विभिन्न राज्यों में अलग - अलग दर से वसूल की जाती थी।
दरबार में उपस्थिति
जब सामन्त राजा के दरबार में उपस्थित होता था, तब राजा उनकी श्रेणी के अनुसार उनका सम्मान करता था तथा राजधानी से लौटते समय राजा उन्हें सिरोपाव देकर विदा करता था। राजा सामन्तों को उनकी श्रेणी एवं पद की मर्यादा के अनुसार लवाजमा (जिसमें नक्कारा, निशान, चंवर - चंवरी, सोने चाँदी की छड़ें आदि होती थीं) भी प्रदान करता था। कुछ राज्यों में सामन्तों को सिक्के ढ़ालने अथवा शराब की भट्टी चलाने का अधिकार प्राप्त था। इसके अतिरिक्त सामन्तों को सिक्के ढालने अथवा शराब की भट्टी चलाने का अधिकार भी प्राप्त था।

सामन्तों की श्रेणियां, पद व प्रतिष्ठा
इन सामन्तों की श्रेणियां भी होती थीं। मेवाड़ के सामन्त तीन श्रेणियों में विभक्त थे, जो आगे चलकर क्रमश: सोहल, बत्तीस एवं गोल कहलाये। प्रथम श्रेणी के सामन्तों की आरम्भिक संख्या १६ थी, किन्तु बाद में २४ हो गये। इन्हें उमराव कहा जाता था। द्वितीय श्रेणी के सामन्तों की संख्या ३२ थी एवं तृतीय श्रेणी की संख्या कई सौ थी, अत: उन्हें गोल कहा जाता था। उमराव को जब राजा का खास रुक्का मिलता था, तब ही वे दरबार में उपस्थित होते थे। राजा समस्त सामन्तों को उनकी श्रेणियों के अनुसार सम्मान प्रदान करता था।
मेवाड़ में भी सामन्त चार श्रेणियों में विभक्त थे - (१)राजा के छोटे भाई व निकट सम्बन्धी राजवी कहलाते थे, जिन्हें उदरपूर्ति के लिए जागीर दी जाती थी। उन्हें तीन पीढ़ी तक रेख, चाकरी तथा हुक्मनामा आदि शुल्क नहीं देना पड़ता था(२) राजपरिवार के अतिरिक्त अन्य राठौड़ सामन्तों को सरदार कहा जाता था। (३)जिन अधिकारियों के पास जागीरें थीं, उन्हें मुत्सदी कहा जाता था (४)राठौड़ों के अतिरिक्त अन्य शाखाओं के सामन्तों को 'गनायत' के नाम से पुकारा जाता था
जयपुर में प्राथमिक रुप से जागीरदारों का विभाजन 'बारह कोटड़ी 'से आधारित था, सरदारों में सबसे मुख्य राजपूत कछवाहा थे, जो राजा के निकट सम्बन्धी होते थे। इसके अतिरिक्त नातावत, चतपर, भुजोत, खांगरोत एवं कल्याणोत आदि बारह कोटड़ी कहलाते थे। इनके अतिरिक्त शेखावतों, नरुकों, बांकावतों एवं गोगावतों की कोचड़ियाँ थीं। कछवाहा सरदार दो श्रेणियों में विभक्त थे - ताजीमी एवं शाकबांकी। राजा को जब आवश्यकता होती थी, तब वह ताजीमी सरदार को खास रुक्का भेजकर दरबार में बुलाता था। फिर उन्हें विदा करते वक्त सिरोपाव देकर विदा करता था।
कोटा के सरदारों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। देशवी अवं हजूरथी। देश में रहकर रक्षा करने वाले देशवी कहलाते थे और राजा के साथ मुगल सेवा में रहने वाले सरदारों को हजूरथी कहा जाता था। कोटा नरेश के निकटतम सम्बन्धी राजवी कहलाते थे तथा अन्य सरदारों को अमीर उमराव के नाम से पुकारा जाता था। कोटा में ताजीमी सरदारों की संख्या ३० थी। बीकानेर के सामन्तों की तीन श्रेणियाँ थी - (१)राव (२)राव बीका का वंसज (३)स्थानीय परदेशी अधीनस्थ सामन्त।
जैसलमेर में रावल के निकट सम्बन्धी 'राजवी' एवं दूर के रिश्तेदार सरदारों को 'रावलोत' के नाम से पुकारा जाता था। समय के साथ -साथ सामन्तों के अधिकार भी कम ज्यादा होते रहे। १८वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में उत्तर पूर्वी राजस्थान के सामन्त बहुत कमजोर हो गये थे, किन्तु दक्षिण पश्चिम राजस्थान के सामन्तों के अधिकार बने रहे। कोटा, बूंदी, भरतपुर एवं धौलपुर के शासकों की शक्ति में वृद्धि होने के कारण उनके सामन्त काफी निर्बल हो थे।

ग्रसिये और भौमिये
डॉ गोपीनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक "राजस्थान का इतिहास" में लिखा है, ग्रसिये वे जागीरदार होते थे जो सैनिक सेवा के बदले में शासन के द्वारा भूमि की उपज का जो' ग्रास' कहलाती थी उपभोग करते थे।
जिन राजपूतों ने अपने राज्य की रक्षा अथवा राजकीय सेवाओं के लिए अपना बलिदान दिया था, उन्हें भौमिया कहा जाता था। ऐसे राजपूतों को राज्य की ओर से भूमि दी जाती थी और इसके बदले में उनसे नाममात्र का कर लिया जाता था। भोमियों दो श्रेणियों में विभक्त थे - बड़े भौमिये एवं छोटे भौमिये।

अंग्रेजों के काल में सामन्तों की स्थिति
अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन की ओर अग्रसर होते ही राजपूत राजा पुन: अपने सामन्तों के उपर आश्रित हो गये। कुछ समय बाद वे ब्रिटिश संरक्षण में चले गये, किन्तु अधिकांश सामन्त इसके विरुद्ध थे, क्योंकि उन्हें अपने विशेषाधिकारों के समाप्त होने का भय था। ब्रिटिश सरकार अपने प्रभाव में वृद्धि करना चाहती थी, अत: उसने राजाओं तथा सामन्तों दोनों को ही क्षीण करने की नीति अपनायी।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक सामन्त लोग अपने जागीरों में स्वतन्त्र शासक की भाँति शासन कर रहे थे। सामन्तों ने जिस भूमि पर बलात् अधिकार कर रखा था उसे खालसा भूमि कहा जाता था। ब्रिटिश सरकार ने सामन्तों को खालसा भूमि को लौटाने के लिए विवश किया। सामन्तों को सैनिक सेवा के बदले में नकद रुपया देने को बाध्य किया गया, जिसके कारण अपने सैनिक दस्ते सस्तों को सस्ते मेें भंग करना पड़ जाए। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों में भी कटौती कर दी गई। इन सब बातों का यह प्रभाव हुआ कि सामन्तों की स्थिती एवं प्रभाव बहुत कम हो गया।





सामन्त प्रथा के लाभ
१) राज्य की सुरक्षा के लिए उपयोगी
२) आर्थिक दृष्टि से लाभदायक
३) रोजगार का साधन
४) नरेशों की निरंकुशता पर अंकुश
हानियाँ
१) राजा का सामन्तों पर आश्रित हो जाना
२) भूमि का विभाजन
३) राज्य के विकास का मार्ग में अवरुद्ध
४) सामन्तों का विलासी व निष्क्रिय जीवन हो जाना।





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