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Friday, 26 August 2011

राजस्थानी लोक गीतों में झाँकता जन-जीवन : प्रो. सुशीला लड्ढा

प्रो. सुशीला लड्ढा



अखण्ड शक्ति से ओत-प्रोत इस राजस्थान की धरा ने अनेक बडे आक्रमण झेले हैं, साथ ही जीत के विजय स्तम्भ भी स्थापित किए हैं, जो आज भी भारतवासियों की प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं और यही कारण है कि सम्पूर्ण भारतवासियों का राजस्थान की धरा के प्रति मन में एक चुम्बकीय आकर्षण बना हुआ है। राजस्थानी कवि कन्हैयालाल सेठिया ने इस धरा-धाम की प्रशस्ति में कहा है -
''या तो सरगां ने सरमावे, 
इण पर देव रमण ने आवे। 
इणरो यश नर-नारी गावे, 
धरती धोराँ री, मीठा मोराँ री'' 
राजस्थान की नयनाभिराम लोक-संस्कृति के शिखरों को छूने के लिए न जाने कितने साहित्यकारों, इतिहासकारों, काव्य-मनीषियों ने इस अनूठे प्रान्त पर सृजनात्मक कार्य किया है। इससे जानने-पहचानने के लिए न जाने कितने जिज्ञासु चरण ललक भरी अन्वेषणात्मक नजरें लिए यहाँ के नगरों-गाँवों, गलियों, ढाणियों, खेत-खलिहानों, कोट-खण्डहरों तक दौडते रहे हैं। यहाँ की लोक-कला-संस्कृति को पहचानने-समझने के लिए पर्वों-मेलों, पूजा-व्रतों, रंगोलियों- माण्डनों से सज्जित द्वारा-चौकों, देवी-देवताओं की मैढी- देवालयों, पवित्र वृक्षों से आच्छादित जंगलों और ऋतुओं के जलसों-समारोहों तक के विविध सरस लोकगीत जन-मानस में बसे हुए हैं। राजस्थान के प्रत्येक कोने में गढ-किले, कोट-छतरियाँ, गुम्बद-बारहदरियाँ और हवेलियाँ छायी हुई है। पराक्रमी रणबाँकुरों का जैसा गरिमामय जीवन रहा है, वैसा ही यहाँ का लोक-जीवन भी बडा रंगीन, मोहक और अनोखी परम्पराओं से युक्त रहा है। यहाँ उत्कृष्ट भीत्ति चित्रों से वेष्टित महल-हवेलियाँ, हस्तलिखित ग्रंथ- पाण्डुलिपियाँ, उच्च कोटि के तेल-चित्र, युग चितेरों की कल्पना शक्ति से निर्मित मंदिर-मण्डप-वेदियाँ-गर्भगृह आदि यहाँ की कला संस्कृति के अटूट, अलभ्य, अकूत खजाने को व्यक्त करते हैं। विद्वानों, कलावंतों, वीरों, भक्तों और धन कुबेरों की अलबेली रंगभूमि रही है यह धरित्री। इन सभी का रोचक और स्वाभाविक वर्णन हमारे विविध लोकगीतों में बिखरा पडा है। इन लोकगीतों की नैसर्गिकता का वितान इतना ऊँचा है कि ऐसा जान पडता है मानो विशाल नीलाकाश में और वसुन्धरा पर प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से इन लोकगीतों में संगीतमय शब्दों, भावनाओं और चित्रों को अंकित किया है। वास्तविकता तो यह है कि इन लोकगीतों को समाज विशेष की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। चूँकि लोकगीतों का रचयिता कोई समाज विशेष या व्यक्ति विशेष तो है नहीं। इनका रचयिता तो स्वयं जनता- जनार्दन का हृदय है। जन मानस ने इन गीतों और धुनों को गाते-गाते विविध रूप प्रदान किए हैं। लाखों कंठों ने गा-गा कर और लाखों लोगों ने मुग्ध होकर सुन-सुन कर इन गीतों को परम शक्तिशाली और हृदयस्पर्शी बना दिया है।


हमारी विविधरूपा कालजयी लोक संस्कृति का लोक जीवन लोकगीतों में बिम्ब के रूप में व्यक्त है। राजस्थानी लोक गीतों से झाँकता अतीत लोक जीवन की मनोहारी छवि प्रस्तुत करता है जिससे हमारा सांस्कृतिक परिवेश जीवन्त रूप में उभर कर सामने आता है। हमारे तीज-त्योहार, पर्व-मेले, लोकोत्सव व्रत-पूजन, ढेर सारी परम्पराओं की बहुआयामी संस्कृति का वास्तविक आदर्श इन्हीं लोक-गीतों में गुंजित है। हमारी संस्कृति तो एक विशाल महासागर है और वह संस्कृति तो गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी, चौपाल, चबूतरे, महल-प्रासादों में ही नहीं, वह तो घर-घर और जन-जन में समाई है। जिसकी महक लोकगीतों के रूप में सम्पूर्ण वायुमण्डल में समाई हुई है। लोकगीतों में ही हमारी संस्कृति और संस्कारों की जडें गहरी पैठी हुई हैं, जो लोक जीवन की संजीवनी मानी जाती रही है। जन-जन में रचे बसे इन्हीं लोकगीतों के माध्यम से जन-जीवन नव-चेतना, नव-उल्लास, नव-स्फूर्ति, नव-प्रगति और नव-निर्माण के प्रतिमानों को प्राप्त करता रहा है।
इसी लौकिक संगीत ने शास्त्रीय संगीत को जन्म दिया। वस्तुतः लोकगीतों का संगीत विशाल वन, स्वच्छन्द नदी- निर्झर और अपार सागर की तरह पावन तथा प्राकृतिक है। इसलिए इन गीतों में परम्परागत हर्षोल्लास, उन्मुक्तता और आत्मानुभूतियाँ हैं। आइए ! राजस्थानी लोकगीतों की बानगी इन गीतों में देखें। ऋतुराज बसंत में फागुन का फगुनाया मौसम आता है तो कैसे नवयौवना बरबस गा उठती है -
''म्हारे आलीजा री चंग, बाजै अलगौजा रे संग, 
फागण आयो रे ! 
रूंख-रूंख री नूंवी कूपळा, गीत मिलण रा अब गावै। 
बन-बागां म काळा भंवरा, कळी-कळी ने हरसावै। 
गूंझै ढोलक ताल मृदंग, बाजे आलीजा री चंग।। 
फागण आयो रे ! 
आज बणी हर नारी राधा, नर बणिया है आज किसन। 
रंग प्रीत रो एडो बिखर्यो, गली-गली है बिंदराबन। 
हिवडै-हिवडै उठे तरंग, बाजे आलीजा री चंग।। 
फागण आयो रे..........''
और होली आते ही गीतों के रंग बिखर जाते हैं।
गायिका नायक को आने का निमंत्रण देती है -
''होळ्यां खेलो तो रंग लावज्यो जी सायबां । 
फागां खेलो तो बागां आवज्यो जी सायबां ।।''
त्योहार हमारी संस्कृति के स्वर हैं। इनके निर्माता ऋषि-महर्षियों ने बडे निस्पृह भाव से हमारे जीवन में सरसता के संचार के लिए इनका निर्माण किया। बसंत ऋतु में आने वाला गणगौर का त्योहार बगीचों में सोलह दिन पूजा से सम्पन्न होता है, जो अत्यन्त स्वास्थ्यवर्धक होता है। नव विवाहिता गीत में हृदय के कोमल भावों को व्यक्त करते हुए मधुर संवाद के माध्यम से अपने प्रियतम से सखियों के साथ भ्रमण की अनुमति चाहती है -
''माथा न मेंमद लाओ, भंवर म्हांरी रखडी रतन जडाय। 
ओजी म्हारी सहेल्यां जोवे बाटो, भंवर म्हांने खेलण द्यों गणगौर। 
खेलण द्यो गणगौर-गणगौर, भंवर म्हांने निरखण द्यो गणगौर। 
जी म्हांरी सहेल्यां .......... 
के दिन की गणगौर, सुन्दर थांने कतरा दिन को चाव। 
सोळा दिन की गणगौर, भंवर म्हांने सोळा दिन को चाव। 
ओजी म्हांरी सहेल्यां .......... 
सहेळ्यां ने ऊभी राखो, सुन्दर थांकी सहेळ्यां ने ऊभी राखो। 
जी थांकी सहेळ्यां ने दोवंण गोट, सुन्दर थाने खेळणं दां गणगौर। 
खेलण द्यो गणगौर''
इसी प्रकार बरसात के मादक, सुरम्य वातावरण में नायिका नायक के विरह में तडप उठती है - वह अपने कोमल भावों को यों व्यक्त करती है -
''रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे, काळा बादळ छाया रे। 
पिया सूं मलबां गांव चली, म्हारे पग में पड ग्या छाला रे। 
रिमझिम........ 
भरी ज्वानी म्हांने छोड गया क्यूं, जोबन का रखवाला रे। 
सोलह बरस की रही कुंवारी, अब तो कर मुकलावां रे। 
रिमझिम........... 
घणी र दूर सूं आई सजनवां, थांसू मिलवा रातां रे। 
हाथ पकड म्हांने निकां बिठाया, कान में कर गया बातां रे। 
रिमझिम....... ''
साहित्य के नवरसों श्रृंगार , वीर, हास्य, करुणा, अद्भुत, शान्त, वात्सल्य, भक्ति आदि सभी भावों के लोकगीतों में यहाँ के लोकजीवन का मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। लोकजीवन की संजीवनी पाकर ही ये लोकगीत पुष्ट होते रहे हैं और आने वाले युग को उपहार के रूप में एक भरपूर और सम्पन्न विरासत दे जाते हैं। इन लोकगीतों में सब कुछ है, सम्पूर्ण लोकजीवन समाया है। परिवार के हर्ष-विषाद, संयोग-वियोग, तीज-त्योहार, स्नेहिल व्यवहार, मेले-मगरिये, आस्था-विश्वास, प्रकृति से लगाव, पशुओं से प्यार, तुलसी, पीपल, बरगद की पूजा, पति-पत्नी के सात्विक प्रेम प्रसंग, शादी के बाद विदा लेती हुई बहन के आँसू, भात-मायरा भरने के लिए जाते हुए भाई और भावज की आत्मीयता, सावन के झूले, बसंत की बहार, वियोग-वेदना को तोता-मैना, काग-कुरजाँ के माध्यम से भेजे जाने वाले संदेश, भाँति-भाँति के उपालंभ-उलाहनें, मीठी-मीठी मनुहारें, फरमाइशें, काल्पनिक वादे, ननद के नखरे, सखियों की मसखरी, देवर की ठिठोली, पति के ठसके, सास के ताने, गर्भ के दिनों की इच्छाएँ, तरह-तरह की साधें, बच्चे के जन्म पर बजते थाल, जच्चा की भावना, देवी-देवताओं की जात और कितना कुछ........ बेटी के ससुराल वालों से ठिठोली के रूप में गीतों में गालियाँ, बेटी के विदा का मार्मिक विदाई गीत जिसे सुनकर आसपास के देखने वालों की भी आँखें नम हो जाती हैं, यहाँ तक कि गाडी लोहार जाति में तो दो बहनों, भाई बहन और माँ-बेटी के मिलन कर रोता हुआ गीत भी अत्यन्त मार्मिक होता है जिसमें वे अपने बचपन से लेकर दूर होने तक की बात गीत के माध्यम से व्यक्त कर देते हैं। इसके लिए उन्हें किसी उपयुक्त स्थान की भी आवश्यकता नहीं, सडक पर कहीं भी मिलें तो भी रोते हुए गीत में वियोग का गम और मिलन की खुशी दोनों ही व्यक्त कर देते हैं। सच पूछा जाय तो लोक गीत प्रकृति और परिवार दोनों की परिक्रमा करते हैं। दोनों की खुशहाली चाहते हैं और दोनों के आपसी संबंधों को उजागर और प्रगाढ करते हैं। यही कारण है कि लोकगीत इतिहास की तुलना में कई अधिक प्रासंगिक और कहीं ज्यादा व्यापक हैं।
अभी शारदीय नवरात्रा निकट है। कैसे घर-घर में देवी पूजन गीतों के साथ होने लगता है -
''थे तो गज गज चालो रा दियाणी माता थां पर चंवर ढुले। 
थां पर चंवर ढुले ये म्हारी मांय, घरवाळा सेवा करे। 
थांरी सेवा करे य म्हारी मांय, सासु-बहुआं पावां पडे। 
थांरे पावां पडे य म्हांरी मांय, ज्युं-ज्युं व्हारी बेल बढे।'' 
हमने तैंतीस करोड देवताओं की भक्ति भी गीतों के माध्यम से उनकी बडाई करके और अच्छे कामों का बखान करके की है। उदाहरण के रूप में सूर्य भगवान का एक गीत देखें -
''धोळो जी धोळो कंई करो सहेल्यां ए, 
धोळो सूरज जी रो घोडलो, धोळा राणी रैणादे रा दांत। 
ऊगण रो उजास भरणो, आंथण रो सिन्दूर झरणो, 
गायां रा गुवाल चाल्या, पंछीडा मारग चाल्या, 
नेम धरम सब साथ सहेल्यां ए, बाबल घर बाज्यों ढोल, 
सहेल्यां ए, सुसराजी घर आणंद उछाव।। 
काळो जी काळो कई करो सहेल्यां ए, काळा राणी रैणादे रा केस, ऊगण...........''
भगवान राम हमारे रग-रग में बसे हैं, समाए हैं। वे जब वन में जाने लगे तो अयोध्यावासी करुणा से गाकर अपनी मन की व्यथा गीत में यों व्यक्त करते हैं -
''रोवे-रोवे रे अयोध्या रा नर नार, 
ज्यूं बन में चाल्या राम जी। 
ऐरे कांटा-भाटा हो गेला सूं दूर, 
पगल्या तो जाने फूल सा। 
माता वचना सूं उघाडा कीदा डील, 
ए बायरा तू धीमो चाल जे। 
सुख-दुःख रा दिन बीत्या वन रा मांय, 
विधाता लिख्या लेख न टले। 
रोवे-रोवे...............''
और पूर्णावतार ''कृष्णं वन्दे जगद्गुरूं'' की तो लीला ही निराली है। उनकी विविध लीलाओं का गुणगान करके जन-जन अपने समप्रण और भक्ति-भाव को व्यक्त करता है।
''काळा काळा रे काळा काळा, गोरी राधा का मतवाळा 
म्हारो मन हर लीनो रे। 
बालपना...........'' 
पणिहारी राजस्थानी के सर्वोत्कृष्ट लोकगीतों में एक है। इसकी राग इतनी कर्णप्रिय, मधुर और चित्ताकर्षक है कि पूंगी पर जब कालबेलिए (सपेरे) पहिणारी बजाते हैं तो साँप मस्त हो जाते हैं और फण फैला कर गीत ध्वनि पर झूमने लगते हैं।
''सात सहेल्यां रे झूलरे, पणिहारी जीयेलो मिरगानेणी जीयेलो 
पाण्यू चाली रे तालाब, बाला जो 
काळी रे कळायण उमडी एक पणिहारी जीयेलो, मिरगानेणी जीयेलो, 
छोटोडी बूंदां रो बरसे मेह, बालाजो। 
आज धराऊं धूंधलो ए पणिहारी.......... 
मोटोडो धारां रो बरसे मेह, बाला जो। 
भर नाडा भर नाडयां ए पणिहारी.......... 
भरियो-भरियो समंद तलाब, बाला जो।'' 
नारी की तो अन्तरात्मा की आवाज ही ये लोकगीत हैं। नारी के पास तो अपने आपको खुलकर अभिव्यक्त करने का साधन ही केवल लोकगीत है। अपने राग-विराग, घृणा-प्रेम, दुःख की जिन भावनाओं को नारी स्पष्ट नहीं कह पाती, उन्हें उसने लोकगीतों के द्वारा गा-गाकर सुना दिया है। लोकगीतों में उसने अपने अन्तःस्थल को खोल कर रख दिया है, जिसमें न वह कहीं रुकी, न झिझकी और न ही शर्मायी। विरहिणी ने अपनी विरह वेदना को कुरुजाँ पक्षी से प्रियतम को संदेश भिजवाना चाहा, जिसमें कितनी करुणा और मिलन की ललक व्यक्त है -
''सूती थी रंग महल में, सूती ने आयो रे जंजाळ, 
सुपना रे बैरी झूठो क्यों आयो रे। 
कुरजां तू म्हारी बैनडी ए, सांभळ म्हारी बात, 
ढोला तणे ओळमां भेजूं थारे लार। 
कुरजां ए म्हारो भंवर मिला देनी ए।'' 
इन गीतों में कृत्रिमता कहीं नहीं है, इसलिए लोकगीत प्राणवान हैं, मधुर हैं, नैसर्गिक है और हृदय को आलोडत- विलोडत करने की इनमें शक्ति है। ये गीत राजस्थानी नारियों के हृदय की झंकार है, कामना की शब्दमूर्ति हैं और भावनाओं के रेखाचित्र हैं। हमने आनन्द और उल्लास से भरे इन गीतों को गा-गाकर खुशियाँ मनायी है तो दुःख और अवसाद में गा-गाकर सहन करने की शक्ति प्राप्त की है। इन लोकगीतों की सादगी और स्पष्टता अत्यन्त प्रभावशाली है। इनके शब्द और ध्वनि चमत्कारमय है। रस का प्रत्यक्ष रूप इनमें देखने को मिलता है। असंख्य कलकंठों से गाए हुए ये गीत जन-जीवन में इतने गहरे पैठ गए हैं कि जन-मानस का अविच्छिन्न अंग बन गए हैं। मानव समाज इन गीत के दर्पण में शताब्दियों से अपनी कामनाओं का प्रतिबिम्ब देखता आया है। अपनी दबी इच्छाओं को इन गीतों द्वारा गा-गाकर मानव अपार हर्ष का अनुभव करता है। वियोग में गा-गाकर विरह सहन करने की क्षमता प्राप्त करता है तो मिलन के प्रेम गीत गा-गाकर प्रेमोन्मत्त हो उठता है। अपने सुन्दर शब्द चयन और रागों के कारण राजस्थानी लोकगीतों ने फिल्मों में भी लोकप्रियता प्राप्त की है, जैसे -
''पल्लो लटके, गोरी को पल्लो लटके 
जरा सा डोढो होजा बालमा म्हारो जियो धडके''
(नौकर फिल्म) 
ये लोकगीत मात्र गीत ही नहीं हैं, यह तो हमारी संस्कृति, परम्परा और पराक्रम के महान् चिह्व हैं। इन लोकगीतों को धन्य है जिन्होंने हमारी संस्कृति के पुनीत यश शरीर को आज तक हमारे सामने जीता जागता, हँसता मुस्कराता खडा कर रखा है। वास्तव में लोकगीत तो मानव-जीवन के वेद पुराण, उपनिषद् और महाकाव्य हैं। गीतों के महासागर में से ये थोडे से रत्न निकाल कर मैंने विद्वत् समाज के समक्ष प्रस्तुत किए हैं। 'हरि अनंत हरि कथा अनन्ता' की भाँति जन-मन के भाव अनंत हैं और अनंत हैं लोकगीत भी, जो जीवन के हर पहलू को उजागर करते हैं। 

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