Thursday, 10 February 2011

वीरमदेव की चौकी से.........





मधुसुदन व्यास

जालोर की धरती, इस पर बना हुआ स्वर्णगिरी का दुर्ग, इस पर स्थित वीरमदेव की चौकी तथा उसका एक अनूठा इतिहास, जो मुझे हर समय अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। इससे मैंने प्रेरणा प्राप्त की। उस इतिहास पुरुष का नाम भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी के साथ लिखा जाना चाहिए था, परन्तु काल की विडम्बना देखिए कि जिनके डोले मुजरे के लिए तथा विवाह सम्बन्धों के लिए दिल्ली जाते रहे, वीरमदेव ने दिल्ली का डोला अस्वीकार किया। एक इतिहास रच डाला, उसी के शब्द सुनाने के लिए मैं एक प्रतिनिधि..........

जालोर के इतिहास प्रसिद्ध वीर योद्धा वीरमदेव का जन्म किस सन् सम्वत् में हुआ तथा किस तिथि वार को हुआ, इस विषय में इतिहास मौन है। “वीरमदेव सोनगरा री बात” और “मुंहता नैणसी री ख्यात” दोनों इस विषय में मौन है। इस कारण से वीरमदेव का जन्म कब हुआ, यह कहना आज कठिन है। इतिहास के विद्यार्थियों के लि यह प्रश्न है। चैहान वंश की जन्मगाथा लिखने वाले तथा चैहान कुल कल्पद्रुम के लेखक लल्लु भाई देसाई ने भी इस विषय में असफलता ही प्राप्त की है। जालोर के चैहान नाडोल से जालोर आये थे। राव लाखणसी जिसे  लाखणसी भी कहा गया है, उसने नाडोल पर चैहान राज्य की स्थापना की थी।  लाखणसी का पुत्र आसरा हुआ, जो नाडोल का राजा हुआ। इसकी संतानों में सोनगरा चैहान, वाव चैहान आदि कई खांपें बतलायी गयी है।  लाखणसी सांभर से आया था। इसी  लाखणसी के परिवार में कीतू अथवा कीर्तिपाल का जन्म हुआ। उस कीतू ने नाडोल से अलग होकर जालोर में अपना राज्य स्थापित किया। कीतू अथवा कीर्तिपाल के पुत्र का नाम समरसिंह था। कीतू को शुरूआत में नारलाई के 12 गांवों की जागीर मिली थी, परन्तु उसने अपने पराक्रम से जालोर के तथा कीराडु के परमार राजाओं को पराजित कर अपना अलग राज्य स्थापित किया। कीतू ने अपना राज्य स्वर्णगिरी पहाड़ पर अथवा सोनगरा पहाड पर स्थापित किया, इस कारण से कीतू के वंशज सोनगरे चैहान कहलाये। कीतू ने जालोर के परमार राजा कुंतपाल, सिवाणा के राजा वीरनारायण आदि को पराजित किया। कीतू का बेटा समरसिंह हुआ। समरसिंह का बेटा मुंहता नैणसी री ख्यात के मुताबिक अरीसिंह हुआ। अरीसिंह का पुत्र उदयसिंह हुआ। जिसके उपर अलाउदीन खिलजी के चाचा जलालुदीन खिलजी ने सम्वत् 1298 की माघ सुदी पांचम को हमला किया था। उदयसिंह ने उस हमले का जोरदार जवाब दिया और जलालुदीन खिलजी को जालोर से भागना पड़ा। उस अवसर पर खुंदाकाचड ने एक दोहा कहा था जो निम्न प्रकार है - “सुंदरसर असुरह दले जलपीयो वेणेह, ऊदे नरपद काढीयो तस नारी नयणेह” इस उदयसिंह का पुत्र जसवीर हुआ। जसवीर का बेटा करमसी हुआ और करमसी का बेटा चाचींगदेव हुआ, जिसने संुधा के पहाड़ पर मन्दिर बनाया। इसके अलावा सेवाड़ा के पातालेश्वर मन्दिर को भी उसने बनाया। उस मन्दिर में एक शिलालेख इस विषय में मिलता है, जिसमें चाचींव का उल्लेख है। सेवाड़ा का वह पातालेश्वर मन्दिर भी शिल्प की दृष्टि से अपने आप में अनूठी मिसाल है। उस शिलालेख के अनुसार सम्वत् 1308 में वैशाख वदी तीज को वहां निर्माण प्रारम्भ किया ग्या था। इसी प्रकार से जसवंतपुरा के पास संवत् 1230 के एक खण्डित मन्दिर का उल्लेख मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि वह मन्दिर दशावतार का मन्दिर था। इस मन्दिर को कृष्ण के इन्द्रप्रस्थ से द्वारका जाने वाले मागर्् की स्मृति के रूप में बनाया ग्या था। चाचींग्देव का पुत्र सामंतसिंह हुआ। सामंतसिंह के 5 पुत्र हु,। जिनके नाम कान्हडदेव, वणवीर, सालजी, डरराव, गेकलीनाथ और मालदेव है जो सिरोही राज्य के राजपुरोहित की पुस्तक में लिखे हु, मिलते हैं जबकि सिरोही राज्य के इतिहास की पुस्तक में सांमतसिंह के दो पुत्रों का नाम मिलता है - कान्हड़देव और मालदेव। कान्हड़देव के पुत्र का नाम वीरमदेव मिलता है। मालदेव के विषय में यह कहा जाता है कि वह कान्हड़देव का भाई था और इतिहास में मुछालामालदेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार का घटनाक्रम इतिहास में मिलता है।


कीतू को जलन्धरनाथ योग्ी ने पारसमणी दी थी और इस पारसमणी के आधार पर उसने जालोर के ग्ढ को बंधवाया था। पारसमणी का उल्लेख कान्हड़देव प्रबन्ध में भी आता है कि कान्हड़देव ने पारसमणी को झालर बावडी में डाल दिया था। आज भी कई लोग पारसमणी की आशा में जालोर किले में भटकते रहते है। जालोर का किला कीतू द्वारा 1232 में बंधवाया था। इस बात का उल्लेख चैहानों का भाट वजेचन्द अपनी पुस्तक में इस प्रकार से करता है - “बारासै बत्तीसे परठ जालोर प्रमाण, तें कीदि कीतू जिंद राव तणा ग्ढ अडग् चहुआण-” कीर्तिपाल का देहान्त संवत् 1235 से 1239 के बीच किसी युद्ध में होना बताया जाता है। यह युद्ध भी मुसलमानों के साथ हुआ था। इसके पुत्र समरसिंह के विषय में यह जानकारी मिलती है कि कनकाचल अर्थात स्र्वणग्रिी पर उसने कोट बनाया था और इस कोट पर दूर-दूर तक गेले फेंकने वाले यंत्र लगये थे अर्थात तोपें समरसिंह ने लग दी थी। इसने समरपुर नामक एक शहर भी बसाया था, जहां उसने सुन्दर बग्ीचा लगया था। यह समरपुर क्या सुमेरग्ढ खेड़ा है, जो बिबलसर के पास आया हुआ है। यह भी बताया जाता है कि इसने जालोर में दो शिव मन्दिर बनाये थे। इसकी बहिन रूदलदेवी का विवाह गुजरात के दूसरे राजा भीमदेव सोलंकी के साथ हुआ था, ऐसा एक शिलालेख जालोर की भोजकालीन परमार पाठशाला में लिखा ग्या है। जालोर के राजाओं को रावल की पदवी थी। इसी समरसिंह के पुत्र मानसिंह उर्फ माणी ने सिरोही राज्य की स्थापना की। इसी समरसिंह के बड़े पुत्र उदयसिंह ने जालोर राज्य का विस्तार किया। उदयसिंह बड़ा पराक्रमी था। इसके राज्य में नाडोल, जालोर, मण्डोर, बाड़मेर, सुराचन्द, राडहट, रामसीण, रतनपुर, आदि कई क्षत्र थे। उदयसिंह ने जालोर में दो शिवालय बनाये थे। एक शिवालय सांडबाव के पास था, इसका नाम सिंधुराजेश्वर मन्दिर था। यह सिंधुराज को मारने की स्मृति में बनाया ग्या था। वर्तमान में इस स्थान पर पुलिस थाना, एक दरगह, एक व्यायाम शाला बनी हुई हैं। इस मन्दिर परिसर के चारों तरफ कोट था। मन्दिर के बाहर सिंधुराज की बाव सांडबाव थी। मन्दिर के चारों तरफ कोट होने से कोटेश्वर महादेव भी इसका नाम कहा ग्या हैं। आज भी इस स्थान पर खुदाई होने पर पुराने अवशेष मिलते हैं। जिसमें से कई जालोर के पुस्तकालय में सुरक्षित रखे ग्ये है। इसी स्थान से किसी समय विष्णु भग्वान तथा ल{मीजी की प्रतिमा भी निकली हुई है जो वर्तमान में सायरक्षल के अन्दर स्थापित है। इसी उदयसिंह के द्वारा दूसरा मन्दिर जाग्नाथ महादेव का बनाया ग्या था। इस सम्बन्ध में वहां पर टूटे फूटे शिलालेख आज भी मिलते हैं। उदयसिंह का पुत्र चाचींग्देव बड़ा वीर था। इसने सुंधामाता का मन्दिर, सिरोही में मातरमाता का मन्दिर बनाया। चाचींग्देव का पुत्र सामंतसिंह हुआ। जिसका पुत्र कान्हडदेव हुआ। विक्रम संवत् 1368 में जालोर का किला टूटा। इस बात का उल्लेख विक्रम संवत् 1545 में लिखे कान्हड़देव प्रबन्ध में मिलता है। कान्हड़देव ने बादशाही फौज को गुजरात में जाने का रास्ता नहीं दिया था। इससे नाराज होकर बादशाह अलाउदीन खिलजी ने जालोर के किले पर घेरा डाला और वीका दहिया नामक व्यक्ति को अपने पक्ष में लोभ देकर मिला दिया। इसका र्वणन करते हु, पदमनाभ कहता है -



“सेजवालि ग्ढ कारणि करी, पापी पापबुद्धि आदरी।

लोभइ एक विटालइ आप, लोभइ एक करइ घण पाप।।”


वीका दहिया द्वारा किये ग्ये इस विश्वास घात को उसकी पत्नी हीरांदे ने अस्वीकार किया। हीरांदे ने जो काम किया वह इतिहास में स्र्वण अक्षरों में लिखने लायक है। हीरांदे ने अपने पति वीका को कहा कि चंडाल तू मुंह दिखाने लायक नहीं है, जिसने तेरे पर विश्वास किया, वह विश्वास तुमने भंग् किया, मेरी सास के गर्भ से तेरे जगह एक जहरीले नाग् का जन्म हुआ और इसी के साथ हीरांदे ने खडग् उठाया और वीका का सिर काट दिया। काटे हु, सिर को रणचंडी की तरह हाथ में पकड़ कर गढ़ के अन्दर भाग कर आ गयी। कान्हड़देव को सूचना की, कि वीका दहिया ने विश्वास घात कर दिया है और उसी के साथ युद्ध का एेलान हुआ।

इस युद्ध में सोनग्रा चैहानों के साथ कान्धल देवड़ा, उलेछा कान्धल, लक्षमण सोभात, जेता देवड़ा, लूणकरण, जेता वाघेला, अर्जुन विहल, मान लणवाया, चांदा विहल, जेतपाल, राव सातल, सोमचन्द व्यास, सला राठौड़, सला सेवटा, जाण भण्डारी युद्ध में काम आये। 1584 महिलाओं ने जौहर किया। इस प्रकार वैशाख सुदी छठ संवत् 1368 को जालोर किले से चैहानों का शासन समाप्त हुआ।


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