Friday, 11 February 2011

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ

राजस्थान और प्रस्तर युग
          राजस्थान में आदिमानव का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ अथवा उसके क्या क्रिया-कलाप थे, इससे संबंधित समसामयिक लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्राचीन प्रस्तर-युग के अवशेष अजमेर, अलवर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, जयपुर, जालौर, पाली, टोंक आदि क्षेत्रों की नदियों अथवा उनकी सहायक नदियों के किनारों से प्राप्त हुये हैं। चित्तौड़ और इसके पूर्व की ओर तो औजारों की उपलब्धि इतनी अधिक है कि ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह क्षेत्र इस काल के उपकरणों को बनाने का प्रमुख केन्द्र रहा हो। लूनी नदी के तटों में भी प्रारम्भिक कालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। राजस्थान में मानव विकास की दूसरी सीढ़ी मध्य पाशाण एवं नवीन पाषाण युग है। आज से हजारों वर्षों से पूर्व लगातार इस यगु की संस्कृति विकसित होती रही। इस काल क े उपकरणांे की उपलब्धि पश्चिमी राजस्थान में लूनी तथा उसकी सहायक नदियाँ की घाटियों व दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में चित्तौड़ जिले में बेड़च और उसकी सहायक नदियाँ की घाटियों में प्रचुर मात्रा में हुई है। बागौर और तिलवाड़ा के उत्खनन से नवीन पाषाणकालीन तकनीकी उन्नति पर अच्छा प्रकाश पड़ा है। इनके अतिरिक्त अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं, कोटा, टोंक आदि स्थानों से भी नवीन पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं। 
          नवीन पाषाण युग में कई हजार वर्ष गुजारने के पश्चात् मनुष्य को धीरे-धीरे धातुओं का ज्ञान हुआ। आज से लगभग 6000 वर्ष पहले धातुओं के युग को स्थापित किया जाता है, परन्तु समयान्तर में जब ताँबा और पीतल, लोहा आदि का उसे ज्ञान हुआ तो उनका उपयोग औजार बनाने के लिए किया गया। इस प्रकार धातु युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि कृषि और शिल्प आदि कार्यों का सम्पादन मानव के लिए अब अधिक सुगम हो गया और धातु से बने उपकरणों से वह अपना कार्य अच्छी तरह से करने लगा।

कालीबंगा
          यह सभ्यता स्थल वर्तमान हनुमानगढ़ जिले में सरस्वती-दृशद्वती नदियों के तट पर बसा हुआ था, जो 2400-2250 ई. पू. की संस्कृति की उपस्थिति का प्रमाण है। कालीबंगा में मुख्य रूप से नगर योजना के दो टीले प्राप्त हुये हैं। इनमें पूर्वी टीला नगर टीला है, जहाँ से साधारण बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। पश्चिमी टीला दुर्ग टीले के रूप में है, जिसके चारों ओर सुरक्षा प्राचीर है। दोनों टीलों के चारों ओर भी सरु क्षा प्राचीर बनी हुई  थी। कालीबंगा से पूर्व-हड़प्पाकालीन, हड़प्पाकालीन और उत्तर हड़प्पाकालीन साक्ष्य मिले है। इस पूर्व-हड़प्पाकालीन स्थल से जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले हैं, जो संसार में प्राचीनतम हैं। पत्थर के अभाव के कारण दीवारें कच्ची ईंटों से बनती थी और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था। व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ तथा कूड़ा डालने के मिट्टी के बर्तन नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे। वर्तमान में यहाँ घग्घर नदी बहती है जो प्राचीन काल में सरस्वती के नाम से जानी जाती थी। यहाँ से धार्मिक प्रमाण के रूप में अग्निवेदियों के साक्ष्य मिले है। यहाँ संभवतः धूप में पकाई राजस्थान अध्ययन भाग-1 4 गई ईंटों का प्रयोग किया जाता था। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों और मुहरों पर जो लिपि अंकित पाई गई है, वह सैन्धव लिपि से मिलती-जुलती है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। कालीबंगा से पानी के निकास के लिए लकड़ी व ईंटों की नालियाँ बनी हुई मिली हैं। ताम्र से बने कृषि के कई औजार भी यहाँ की आर्थिक उन्नति के परिचायक हैं। कालीबंगा की नगर योजना सिन्धु घाटी की नगर योजना के अनुरूप दिखाई देती है। कालीबंगा के निवासियों की मृतक के प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने वाली तीन समाधियाँ मिली हैं। दुर्भाग्यवश ऐसी समृद्ध सभ्यता का ह्नास हो गया, जिसका कारण संभवतः सूखा, नदी मार्ग में परिवर्तन इत्यादि माने जाते हैं।

आहड़
          वर्तमान उदयपुर जिले में स्थित आहड़ दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान का सभ्यता का केन्द्र था। यह सभ्यता बनास नदी सभ्यता का प्रमुख भाग थी। ताम्र सभ्यता के रूप में प्रसिद्ध यह सभ्यता आयड़ नदी के किनारे मौजूद थी। यह ताम्रवती नगरी अथवा धूलकोट के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह सभ्यता आज से लगभग 4000 वर्ष पूर्व बसी थी। विभिन्न उत्खनन के स्तरों से पता चलता है कि बसने से लेकर 18वीं सदी तक यहाँ कई बार बस्ती बसी और उजड़ी। ऐसा लगता है कि आहड़ के आस-पास ताँबे की अनेक खानों के होने से सतत रूप से इस स्थान के निवासी इस धातु के उपकरणों को बनाते रहें और उसे एक ताम्रयुगीय कौशल केन्द्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 500 मीटर लम्बे धूलकोट के टीले से ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, लोहे के औजार, बांस के टुकडे़, हड्डियाँ आदि सामग्री प्राप्त हुई हैं।
          अनुमानित है कि मकानों की योजना में आंगन या गली या खुला स्थान रखने की व्यवस्था थी। एक मकान में 4 से 6 बडे़ चूल्हों का होना आहड़ में वृहत् परिवार या सामूहिक भोजन बनाने की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं। आहड़ से खुदाई से प्राप्त बर्तनों तथा उनके खंडित टुकड़ों से हमें उस युग में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का अच्छा परिचय मिलता है। यहाँ तृतीय ईसा पूर्व से प्रथम ईसा पूर्व की यूनानी मुद्राएँ मिली हैं। इनसे इतना तो स्पष्ट है कि उस युग में राजस्थान का व्यापार विदेशी बाजारों से था। इस बनास सभ्यता की व्यापकता एवं विस्तार गिलूंड, बागौर तथा अन्य आसपास के स्थानों से प्रमाणित है। इसका संपर्क नवदाटोली, हड़प्पा, नागदा, एरन, कायथा आदि भागों की प्राचीन सभ्यता से भी था, जो यहाँ से प्राप्त काले व लाल मिट्टी के बर्तनों के आकार, उत्पादन व कौशल की समानता से निर्दिष्ट होता है।

बैराठ
          वर्तमान जयपुर जिले में स्थित बैराठ का महाभारत कालीन मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर से समीकरण किया जाता है। यहाँ की पुरातात्त्विक पहाड़ियों के रूप में बीजक डूँगरी, भीम डूँगरी, मोती डूँगरी इत्यादि विख्यात है। यहाँ की बीजक डूँगरी से कैप्टन बर्ट ने अशोक का ‘भाब्रू शिलालेख’ खोजा था। इनके अतिरिक्त यहाँ से बौद्ध स्तूप, बौद्ध मंदिर (गोल मंदिर) और अशोक स्तंभ के साक्ष्य मिले हैं। ये सभी अवशेष मौर्ययुगीन हैं। ऐसा माना जाता है कि हूण आक्रान्ता मिहिरकुल ने बैराठ का विध्वंस कर दिया था। चीनी यात्री युवानच्वांग ने भी अपने यात्रा वृत्तान्त में बैराठ का उल्लेख किया है।

सभ्यता के अन्य प्रमुख केन्द्र
          पाषाणकालीन सभ्यता के केन्द्र बागौर से भारत में पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। ताम्रयुगीन सभ्यता के दो वृहद् समूह सरस्वती तथा बनास नदी के कांठे में पनपे थे जिनका वर्णन ऊपर के पृष्ठों में किया गया है। इसी प्रकार राजस्थान में अन्य कई महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं जो इस युग के वैभव की दुहाई दे रहे हैं। गणेश्वर, खेतड़ी, दरीबा, ओझियाना, कुराड़ा आदि से प्राप्त ताम्र और ताम्र उपकरणों का उपयोग अधिकांश राजस्थान के अतिरिक्त हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, रोपड़ आदि में भी होता था। सुनारी, ईसवाल, जोधपुरा, रेढ़ इत्यादि स्थलों से लोहयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले है। 
          अतः सरस्वती-दृशद्वती, बनास, बेड़च, आहड़, लूनी इत्यादि नदियों की उपत्यकाओं में दबी पड़ी कालीबंगा, आहड़, बागोर, गिलूंड, गणेश्वर आदि बस्तियों से मिली प्राचीन वस्तुओं से एक विकसित और व्यापक संस्कृति का पता लगा है। ये सभ्यताएँ न केवल स्थानीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व करती थी, अपितु चित्रकला, भाण्ड-शिल्प तथा धातु संबंधी तकनीकी कौशल में पश्चिमी एशिया, ईराक, अफ्रीका आदि देशों की प्राचीन सभ्यताओं से सम्पर्क में थी।

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