Sunday, 17 July 2011

स्वाधीनता संग्राम में राजस्थान का योगदान


उमराव सालोदिया



राजस्थान शौर्य, त्याग और संतों की भूमि है और यहां स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने की एक गौरवशाली परम्परा भी रही है। महाराणा प्रताप की वीरता, भक्तिमयी मीरा की कृष्ण भक्ति, रानी पद्मिनी का पतिव्रत धर्म की रक्षार्थ जौहर और पन्नाधाय का त्याग आज भी देशवासियों की जुबान पर है। वीर प्रसविनी माताएं पुत्र के जन्म से अधिक उसके देश की बलिवेदी पर न्यौछावर होने पर हर्षित होती रही हैं - सुत मरियो हित देस रे, हरख्यो बन्धु समाज । माँ नह हरखी जनम दे, जतरी हरखी आज।। सूर्यमल्ल मिश्रण ने तो देश भक्ति की भावना अपनी संतान में भरने के लिए माँ के उद्गार इस प्रकार व्यक्त किए हैं - 

इला न देणी आपणी, हालरिए दुलराय। 
पूत सिखावै पालणे, मरण बडाई माय।। 
राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए प्रख्यात अंग्रेज इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है - ''राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा कोई नगर नहीं, जिसने अपना लियोनिडास पैदा नहीं किया हो।'' 
भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम १८५७ की असफलता से देश में अंग्रेजी राज का वर्चस्व पूर्ण रूप से स्थापित हो गया, लेकिन शीघ्र ही १९०५ में 'बंग भंग' ने देश में क्रान्ति की ज्वाला को फिर से प्रज्वलित कर दिया। राजस्थान भी इस आन्दोलन में पीछे नहीं रहा। बारहठ केसरी सिंह, खरवा ठाकुर गोपाल सिंह, जयपुर के अर्जुन लाल सेठी और ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी ने 'अभिनव-भारत-समिति' नामक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना कर क्रान्ति के इस आन्दोलन में जान फूंक दी। सशस्त्र क्रान्ति के इस कार्य में सबसे बडा योगदान ठाकुर केसरी सिंह बारहठ और उनके परिवार का था। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता, डिंगल के उत्कृष्ट कवि और महान देशभक्त थे। उन्होंने राजस्थान के राजाओं और जमींदारों में राष्ट्रीय भावना भरने का प्रयत्न किया। सन् १९०३ में लार्ड कर्जन के दरबार में भाग लेने के लिए मेवाड के महाराणा फतहसिंह जब दिल्ली के लिए रवाना हुए तो बारहठ के 'चेतावनी के चूंगटिया' कृति से प्रभावित हो कर दरबार में भाग लिए बिना ही लौट आए। 
राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष में 'प्रजा मण्डल आन्दोलन' और अन्य 'जन आन्दोलनों' की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही। किसान आन्दोलन के रूप में बिजोलिया, बेगूं, बूंदी, अलवर आदि स्थानों के आन्दोलन प्रभावशाली रहे। साथ ही राज्य के विभिन्न स्थानों पर हुए भीलों के आन्दोलन , मीणों के आन्दोलन भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। किसान आन्दोलन के प्रमुख प्रणेता विजय सिंह पथिक अत्यन्त सजग और संवेदनशील रचनाकार थे। उन्होंने अधिकांश साहित्य सृजन जेल की काल कोठरियों में ही रह कर किया। उनके अन्तरतम की छटपटाहट और राष्ट्र की आजादी की बलिवेदी पर न्यौछावर हो जाने की चाह उनकी इन पक्तियों में लक्षित होती है - 
यश, वैभव, सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं, जीवन न रहे। 
यदि इच्छा है - यह है जग में, स्वैच्छाचार, दमन न रहे ।। 
भील आन्दोलन और प्रजा मण्डल आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में श्री मोतीलाल तेजावत, माणिक्यलाल वर्मा, बलवन्त सिंह मेहता, भूरेलाल बया आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। मारवाड अंचल में श्री जयनारायण व्यास, आनंदराज सुराणा, भंवरलाल सर्राफ, जयपुर में श्री अर्जुन लाल सेठी, हीरालाल शास्त्री, टीकाराम पालीवाल आदि, बीकानेर में श्री मघाराम वैद्य,लक्ष्मणदास स्वामी आदि, कोटा में पं० नयनूराम शर्मा, पं० अभिन्न हरि, सिरोही में श्री गोकुल भाई भट्ट, धर्मचंद सुराणा आदि लोक नायकों ने प्रजा परिषद की स्थापना कर अपने अपने क्षेत्र में देश की आजादी के आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की। इन जन नायकों, स्वाधीनता सेनानियों के त्याग और बलिदान के परिणाम स्वरूप हमें १५ अगस्त, १९४७ को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति प्राप्त हुई, जिसके लिए हम भारतवासी उनके कृतज्ञ हैं। 
राजस्थान के मूर्धन्य साहित्यकार और गीतकार, अकादमी के 'मीरा पुरस्कार' और 'विशिष्ट साहित्यकार सम्मान' से समादृत श्री हरीश भादानी जी गत कुछ समय से गंभीर कैंसर रोग से पीडत हैं। श्री भादानी ने एक सुमधुर गीतकार के रूप में हिन्दी जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। मैं राजस्थान के सभी साहित्यकारों और हिन्दी जगत के साहित्यकारों की ओर से श्री भादानी जी के शीघ्र स्वस्थ होने और दीर्घजीवी होने की कामना करता हूँ। मधुमती परिवार के सभी सदस्यों और हिन्दी जगत के साहित्यकारों और देशवासियों को स्वाधीनता दिवस की अनेकानेक शुभकामनाएँ । इति।

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