Saturday, 27 August 2011

राजस्थानी किलों की स्थापत्य कला

राहुल तोन्गारिया
राजस्थान में भी महाराष्ट्र के समान कदम कदम पर किलें और दुर्ग मिलते हैं। राजस्थान में लगभग हर १० मील के बाद कोई न कोई दुर्ग और किला अवश्य मिल जाएगा। चाहे राजा हो या सामन्त वह किले को निधि के रुप में समझता था। वे अपने निवास के लिए, सुरक्षा के लिए, सामग्री संग्रह के लिए, आक्रमण के समय अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के लिए, पशु धन को बचाये रखने के लिए और सम्पत्ति को छिपाने के लिए किले बनवाते थे। 

राजस्थान में किले के स्थापत्य के विकास का प्रथम सूत्र कालीबंगा की खुदाई में मिलता है। उत्तर और दक्षिणी धूल के ढ़ेरोंको खोदने से स्पष्ट किये गए भाग सम्भवत: किले के भाग रहे है हाड़ोती, बागड़, आमेर . आदि भागों में धूल आदि से आच्छादित दीवारें मिलीं है, वे भी इस ओर संकेत करती हैं कि कुछ छोटी - छोठी बस्तियों को सुरक्षित रखने के लिए काँटों की झाडियाँ बाहर की ओर लगा दी जाती हैं जो प्राचीनकालीन सुरक्षा - दीवार के सरल रुप हैं। इस परम्परा को देखते हुए लगता है कि रेगिस्तानी भागों में तथा पर्वतीय प्रान्तों में प्राचीन मानव झाडियाँ लगाकर या खाइयाँ खोदकर सुरक्षा की व्यवस्था करता था।
इस प्राचीन काल से आगे बढ़ने पर जब हम मौर्य और गुप्त तथा परिवर्तित युग में जाते हैं तो हमें कुछ किलों के स्वरुप के निश्चित आधार उपलब्ध होते हैं। पीर सुल्तान और बड़ोपल में जो गंगानगर जिले में हैं किलों के अवशेष दिखाई देते हैं जिनमें सुदृढ़ प्राचीर, इमारतें द्वार एवं गोल बुजç अनुमानित की जाती हैं। चित्तौड़ के अन्तिम छोर वाले भाग में सुदृढ़ दीवारों के खण्डहर ७ वीं शताब्दी के किले के स्थापत्य के साक्षी है। १३वीं शताब्दी से आगे के युग तक तो किले बनाने की परम्परा एक नया मोड़ लेती हैं। इस काल में ऊँची - ऊँची पहाड़ियों पर जो ऊपर चौड़ी हों और जिनमें खेती के साधन हों, किले बनाने के उपयोग में लाई जाने लगीं। चित्तौड़, आबू, कुम्भलगढ़, माण्डलगढ़ आदि स्थानों के किले प्राचीन काल के थे। उनको फिर से मध्यकालीन युद्ध शैली के अनुरुप बना दिया गया। उदारहणार्थ, महाराजा कुम्भा ने चित्तौड़ किले की प्राचीर, द्वारों की श्रृंखला तथा बुजाç से अधिक सुदृढ़ बनाया। कुम्भलगढ़ के किले पहाड़ी श्रृंखलाओं से घिरे हुए होने के कारण आकार द्वारा अधिक सुरक्षित किया गया। किले के भीतर ऊँचे से ऊँचे भाग का प्रयोग राजप्रासाद के लिए तथा नीचे से नीचे भाग को जलाशयों के लिए और समतल भाग को खेती के लिए रखा गया। बची हुई भूमि का उपयोग मंदिरों तथा मकानों के निर्माण में किया गया। किले के चारों ओर दीवारों को नीचे गहरे पहाड़ी गड्ढ़े ऐसी स्थिती में रखे गए कि हमलावर फौजी का दुर्ग में घुसना कठिन हो, दीवारें चौड़ी और बड़े आकार की बनायी गयी जिन पर कई घोड़े एक सात चल सके। प्राकार की दीवार का ढ़ाल इस तरह रखा गया कि उस पर सरलता से कठिन हो। अचलगढ़ तथा जोधपुर के किले में चौड़ा भाग न होने के कारण पानी का प्रबन्ध कृत्रिम टंकियों से किया गया। इसी तरह जब जालौर तथा नागौर के किले तुर्कों व मुगलों के अधीन हो गये तो उनमें गोली चलाने तथा तोपखाने से आक्रमण को रोकने की विधि का प्रयोग किया गया। बीकानेर का किला समतल मैदान में होने से ऊँची प्राचीर बनाई गई और उसके चारों ओर खाई का प्रबन्ध किया गया। युद्ध काल में किले में फाटकों को बन्द करके लड़ने के लिए यह किला बड़े उपयोग का था।

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