राहुल तोन्गारिया
राजस्थान में मुसलमान आक्रमणों से पूर्व हिन्दू धर्म व जैन धर्म निर्विध्न रुप से पल्लवित हो रहे थे। मुसलमान आक्रमण के समय हिन्दू धर्म का विभाजन कई सम्प्रदायों में हो गया था। शैवमत के अनुयायी राजस्थान में पर्याप्त संख्या में थे। वे शिव की विभिन्न रुपों में पूजा करते थे। शैव धर्म के अन्य अंग थे -- लकुलीश एवं नाथ सम्प्रदाय। शिव पूजा के साथ - साथ यहाँ शक्ति की उपासना भी की जाती थी। राजपूत युद्ध प्रेमी थे। अत: उनके शासकों ने तो शक्ति (दैवी) को अपनी आराध्य या कुलदेवी के रुप में स्वीकार कर लिया था और उसकी आराधना राजस्थान में कई रुपों में की जाती थी। उदाहरणस्वरुप, बीकानेर में करणी माता, जोधपुर में नागणेची, मेवाड़ में बाण माता तथा जयपुर में अन्नपूर्णा आदि की कुल देवियों के रुप में पूजा की जाती है।
जैसलमेर के क्षेत्र में शक्ति की उपासना व्यापक रुप से होती है। वैष्णव धर्म भी राजस्थान में पर्याप्त रुप में प्रचलित था। यहाँ के नरेश भी वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने इस धर्म को जनसाधारण में लोकप्रिय बनाया राम की पूजा वैष्णव धर्म के अंग मात्र थी। आलोच्यकालीन मेवाड़ के राजपत्रों एवं ताम्रपत्रों पर 'श्री रामोजयति 'एवं 'रामापंण' शब्दों का उल्लेख मिलता है। बांसवाड़ा एवं जयपुर राज्य के राजपत्रों पर 'श्री रामजी 'तथा 'श्री सीता रामजी' शब्दों का प्रयोग किया गया है। जयपुर के महाराजा विजयसिंह ने अपने समय में वल्लभ सम्प्रदाय को अधिक प्रोत्साहन दिया। यद्यपि राजस्थान का कोई भी शासक जैन धर्म को अनुयायी नहीं था, तथापि यह धर्म भी यहाँ पल्लवित होता रहा। इसका कारण जैनियों का राजपूत शासकों के यहाँ पर उच्च पदों पर आसीन होना था। इसलिए जैसलमेर, नाडौल, आमेर, रणकपुर एवं आबू आदि स्थानों पर काफी संख्या में जैन मंदिरों की निर्माण हुआ।
इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म भी अनेक सम्प्रदायों में विभक्त था। वे अपने - अपने इष्ट देवताओं की पूजा करते थे। राजस्थान के विभिन्न स्थानों पर पंचायतन देवालय प्राप्त हुए हैं, इस बात की पुष्टि करते हैं।
इन विभिन्न सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर कोई विवाद नहीं होता, परन्तु मुसलमानों के राजस्थान में प्रवेश करते ही यहाँ के धार्मिक वातावरण में हलचल मच गई। मुसलमानों ने अजमेर को अपना केन्द्र बनाया और उसके बाद राजस्थान के अन्य भागों में फैलना शुरु कर दिया। उन्होंने हिन्दू मंदिरों को गिरा दिया और हिन्दुओं को बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार करवाया। मंदिरों में प्रतिष्ठित मूर्तियों को खण्डित कर हिन्दुओं की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाई। इस प्रकार के संक्रमण काल में राजस्थान में भी कई सन्तों का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों के माध्यम से हिन्दू और मुसलमानों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। रुढिवादी विचारों के स्थान पर उन्होंने हृदय की शुद्धि व ईश्वर की भक्ति पर अधिक बल दिया। उन्होंने सगुण तथा निर्गुण भक्ति में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। धार्मिक क्षेत्र में इस प्रकार के परिवर्तनों के समावेश को धार्मिक आन्दोलन की संज्ञा दी जाती है।
उत्तर भारत में इस आन्दोलन का श्रेय रामानंद को एवं दक्षिण भारत में रामानुज को दिया जाता है। कबीर, चैतन्य तथा नानक रामानंद के सहयोगी माने जाते हैं। राजस्थान में भी सन्तों ने ही इस आन्दोलन को प्रारम्भ करने का प्रयास किया। पाँच सन्तों - पाबू जी राठौड़, रामदेव जी तंवर, हड़बूजी सांखला, मेहाजी मांगलिया और गोगाजी चौहान ने इस आन्दोलन को प्रबल बनाने का प्रयास किया। इनके अतिरिक्त अन्य सन्तों में मीरा, दादू, चरणदास एवं रामचरण आदि के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
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