Thursday 25 August 2011

परम्परागत जल प्रबन्धन

पृष्टभूमि :

जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होनें की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं और झीलों का विवरण मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्दगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील के निर्माण का विवरण प्राप्त है। भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अतः जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं। जैसे हिमालय में नदी से जल संचयन की प्रणाली विकसित हुई, जबकि राजस्थान में केवल जल वर्षा से संचयन किया जाता है। अतः भारत में जल प्रबन्धन प्रणालियाँ वहां के भौगोलिक परिवेश के अनुरूप विकसित हुई। राजस्थान में पानी के लगभग सभी स्रोतों की उत्पत्ति से सम्बन्धित लोक कथाएँ प्रचलित है। बाणगंगा की उत्पत्ति अर्जुन के तीर मारनें से जोड़ते हैं वही भीम द्वारा जमीन में पैर मारकर पानी का फव्वारा निकलाने की कथा कहते हैं। राजस्थान के लोगों ने पानी के कृत्रिम स्रोतों का निर्माण किया हें, ये ही पानी के पारम्परिक स्रोत हैं। नाडी़, तालाब, जोहड़, बांध, सागर-सरोवर आदि। कुआँ और बावडी़ भी पानी का महत्वपूर्ण स्रोत है। कुएँ का मालिक एक अकेला या परिवार होता था, जबकि बावडी़ धार्मिक दृष्टिकोण से निर्मित करवाई जाती थी। वह सभी लागों के लिए होती थी।
                       राजस्थान में जल सरंक्षण की परम्परागत प्रणालियाँ स्तरीय है। यहाँ जल संचय की परम्परा सामाजिक ढँाचे से जुडी़ हुई हैं। जल स्रोतों को पूजा जाता है। यहाँ के लोगों ने पानी के कृत्रिम स्रोतों का अविष्कार किया है जिसके आधार पर कठिन जीवन को भी सहज बना दिया है। राजस्थान के अनेक क्षेत्रों में जल महत्व की लोक कथाएँ प्रचलित हैं।पिछले कुछ समय से जल संरक्षण (प्रबन्धन) शब्द महत्वपूर्ण हो गया है। कई विकासात्मक योजनाएं तथा उद्योग जगत जल सरंक्षण अवधारणा से प्रभावित हुआ है। अतः तेजी से कम होता जल एवं जल सरंक्षण संसाधन को पुनर्जिवित किया जाए, इसकी आज महती आवश्यकता है। परम्परागत जल प्रबन्धन की प्रणालियों को विकसित किये जाने से ही इस समस्या का समाधान है। जल जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। जल सरंक्षण ही विकास की प्रक्रिया से जुडा़ हुआ है।
                                    राजस्थान क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का सबसे बडा़ राज्य हैं और जनसंख्या की अवधारणा से 8 वें नम्बर पर है। देश की 5.5 प्रतिशत जनसंख्या राजस्थान में निवास करती है, परन्तु देश में उपलब्ध जल का मात्र एक प्रतिशत जल ही राजस्थान में प्राप्त है। इसलिए परम्परागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।

राजस्थान में परम्परागत जल स्त्रोत :
  • तालाब : तालाब में वर्षा का पानी को एकत्रित किया जाता है। प्राचीन काल से तालाबों का अस्तित्व रहा है। तालाबों के समीप कुआँ भी होता था। इनकी देख-रेख की जिम्मेदारी समाज की होती थी। धार्मिक तालाबों की सुरक्षा व सरंक्षण अच्छा हुआ है। अनेक तालाबों का शहरीकरण हो गया है। राज्य में स्थित तालाबों पर तत्काल ध्यान रखने की आवश्यकता हैं क्योंकि इनसे अनेक कुओं एवं बावडियों को पानी मिलता है।
    मुख्य तालाबों की जिलेवार स्थिति -
    (1) रणथम्भौर: सुखसागर तालाब, कालासागर तालाब, जंगली तालाब।
    (2) पाली: हेमावास, दांतीवाडा़, मुथाना तालाब।
    (3) भीलवाडा़: सरेरी, खारी, मेजा तालाब।
    (4) उदयपुर: बागोलिया तालाब।
    (5) चितोड़गढ़: पद्मीनी तालाब, वानकिया, मुरालिया, सेनापानी तालाब।
    (6) बूंदी: कीर्ति मोरी, बरडा, हिण्डोली तालाब।
    (7) भरतपुर: पार्वती, बारेठा तालाब।
    (8) जैसलमेर: गढ़सीसर तालाब।
    (9) डूंगरपुर: एडवर्ड सागर।
    (10) प्रतापगढ़: रायपुर, गंधेर, खेरोट, घोटार्सी, ढ़लमु, अचलपुर, जाजली, अचलावदा, सांखथली, तथा तेजसागर तालाब।

  • झीलें : राजस्थान मंे परम्परागत जल सरंक्षण सर्वाधिक झीलों में होता है। यहाँ पर प्रसिद्ध झीले हैं। यहाँ के राजा, सेठों व बनजारों और जनता ने झीलों का निर्माण करवाया है। लालसागर झील, (1800 ई.) केलाना झील (1872 ई.) तखतसागर झील (1932 ई.), और उम्मेदसागर झील (1931 ई.) आकार की दृष्टि से विशाल है। इनमें 70 करोड़ घन फिट जल तक आ सकता है। पुष्कर झील का धार्मिक महत्व है। झीलों का सिचाईं के रूप में भी प्रयोग होता है और कहीं पेयजल के रूप में।
    झीलों की जिलेवार स्थिति-
    (1) अजमेर: आनासागर, फाॅय सागर, पुष्कर झील!
    (2) अलवर: जयसागर, मानसरोवर, विजय सागर।
    (3) उदयपुर: फतहसागर, पिछोला, जयसंमद, उदयसांगर, स्वरूप सांगर।
    (4) करौली: नाग तलाई, जुग्गर, ममचेडी़, नीदर।
    (5) कोटा: जवाहर सागर
    (6) चित्तोडगढ़: राणा प्रताप सागर, भूपाल सागर झील।
    (7) चुरू: ताल छापर झील,
    (8) जयपुर: सांभर झील,छापरवाड़ा झील जमवारामगढ़
    (9) जालौर: बांकली बांध, बीठल बांध
    (10) जैसलमेर: गढ़सीसर ,उम्मेदसागर, प्रतापासगर
    (11) जोधपुर: बालसंमद,उम्मेदसागर, प्रतापसागर
    (12) झालावाड़: मानसरोवर
    (13) झुन्झुनू: अजीत सागर बांध।
    (14) टोंक: बीसलपुर,टोरडी सागर
    (15) डूंगरपुर: गैब सागर,सोमकमला
    (16) दौसा: कालख सागर।
    (17) धोलपुर: रामगसागर,तालाबषाही।
    (18) नागोर: डीडवाना,भांकरी मोलास।
    (19) पाली: सरदार संमद।
    (20) बाड़मेर: पंचबद्रा
    (21) बांरा: उम्मेद सागर,अकलेरा सागर।
    (22) बांसवाड़ा: बजाज सागर बांध
    (23) बीकानेर: लूणकरणसर, अनूप सागर, गजना झील।
    (24) बूंदी: नवलख सागर, जेतसागर, सूरसागर।
    (25) भरतपुर: मोती झील।
    (26) भीलवाड़ा: मांडलताल, खारी बांध, जैतपुरा बांध।
    (27) राजसंमद: राजसंमद झील।
    (28) सवाई माधोपुर: पाँचना बांध, मोरेल बांध।
    (29) सिरोही: नक्की झील
    (30) सीकर: रायपुर बाँध।
    (31) श्री गंगानगर: शिवपुरहैड झील।
    (32) हनुमान गढ़: तलवाडा़ झील।

  • नाडी : यह एक प्रकार का पोखर होता है। इसमंे वर्षा का जल एकत्रित होता है। यह विशेषकर जोधपुर की तरफ होती है। 1520 ई. में राव जोधाजी ने सर्वप्रथम एक नाडी़ का निर्माण करवाया था। पश्चिमी राजस्थान के प्रत्येक गांव में नाडी़ मिलती है। रेतीले मैदानी क्षेत्रों में ये नाडियाँ 3 से 12 मीटर तक गहरी होती है। इनमे जल निकासी की व्यवस्था भी होती है। यह पानी 10 महिने तक चलता है। एल्युवियल मृदा (मिटृी) वाले क्षेत्रों की नाडी़ आकार में बडी़ होती है। इनमें पानी 12 महिने तक एकत्र रह सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार नागौर, बाड़मेर व जैसलमेर में पानी की कुछ आवश्यकता का 38 प्रतिशत पानी नाडी़ द्वारा पूरा किया जाता है। नाडी़ वस्तुतः भूसतह पर बना एक गड्ा होता है जिसमें वर्षा जल आकर एकत्रित होता रहता है। समय समय पर इसकी खुदाई भी की जाती है, क्योंकि पानी के साथ गाद भी आ जाती है जिससे उसमें पानी की क्षमता कम हो जाती है। कई बार छोटी-छोटी नाडि़यों की क्षमता बढा़ने के लिए दो तरफ से उनको पक्की कर दिया जाता है। नाडी़ बनाने वाले के नाम पर ही इनका नाम रख दिया जाता है। अधिकांश नाडि़या आधुनिक युग में अपना अस्तिव खोती जा रही है। इन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है।

  • बावडी़ : राजस्थान मंे बावडी़ निर्माण की परम्परा भी प्राचीन है। प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। कई बावडियाँ वास्तुशास्त्र से बनाई जान पड़ती है। अपराजितपृच्छा ग्रन्थ में बावडियों के चार प्रकार बताये गये है है। अधिकांश बावडियाँ मन्दिरों, किलो या मठों के नजदीक बनाई जाती थी। आभानेरी की चाँद बावडी़ हर्षद माता के मन्दिर के साथ बनी हुई हैं। इस चाँद बावडी के दोनों ओर बरामदे एवं स्नानगृह है। बावडियां पीने के पानी, सिंचाई एवं स्नान के लिए महत्वपूर्ण जल स्त्रोत रही हैं। राजस्थान की बावडियाँ वर्षा जल संचय के काम आती है। कहीं कहीं इनमें आवासीय व्यवस्था भी रहती थी। मेघदूत में बावडी़ निर्माण का उल्लेख मिलता है। आज राजस्थान में बावडि़यों की दशा ठीक नहीं है। इनका जीर्णोंद्धार किया जाना चाहिए।

  • टांका : टांका राजस्थान में रेतीले क्षेत्र में वर्षा जल को संग्रहित करने की महत्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है। इसे कुंड भी कहते हैं। यह विशेषतौर से पेयजल के लिए प्रयोग होता है। यह सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढक दिया जाता है इसका निर्माण मिटृी से भी होता है और सिमेण्ट से भी होता है। यहाँ का भू-जल लवणीय होता हैं इसलिए वर्षा जल टांके में इकट्टा कर पीने के काम में लिया जाता है। वह पानी निर्मल होता है। यह तश्तरी प्रकार का निर्मित होता हैं। टांका किलों में, तलहटी में, घर की छत पर, आंगन में और खेत आदि में बनाया जाता है। इसका निर्माण सार्वजनिकरूपसे लोगों द्वारा, सरकार द्वारा तथा निजी निर्माण स्वंय व्यक्ति द्वारा करवाया जाता है। पंचायत की जमीन पर निर्मित टांका सार्वजनिक होता हैं। जिसका प्रयोग पूरा गांव करता है। कुछ टांके (कुंडी) गांव के अमीरों द्वारा धर्म के नाम पर परोपकार हेतु बनवा दिये जाते हैं। एक परिवार विशेष उसकी देख-रेख करता हैं।
                          कुंडी या टांके का निर्माण जमीन या चबूतरे के ढ़लान के हिसाब से बनाये जाते हैं जिस आंगन में वर्षा का जल संग्रहित किया जाता है, उसे, आगोर या पायतान कहते हैं। जिसका अर्थ होता बटोरना। पायतान को साफ रखा जाता है, क्योंकि उसी से बहकर पानी टांके में जाता है। टांके के मुहाने पर इंडु (सुराख) होता है जिसके ऊपर जाली लगी रहती है,ताकि कचरा नहीं जा सके। टांका चाहे छोटा हो या बडा़ उसको ढंककर रखते हैं। पायतान का तल पानी के साथ कटकर नहीं जाए इस हेतु उसको राख, बजरी व मोरम से लीप कर रखते हैं। टांका 40-30 फिट तक गहरा होता है। पानी निकालने के लिए सीढि़यों का प्रयोग किया जाता है। ऊपर मीनारनुमा ढे़कली बनाई जाती है जिससे पानी खींचकर निंकाला जाता है। खेतों में थोडी़-थोडी़ दूरी पर टांकें या कुडि़या बनाई जाती हैं।

  • खडीन : खडीन का सर्वप्रथम प्रचलन 15वी शताब्दी में जैसलमरे के पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था। यह बहुउद्देशीय परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खडीन के निर्माण हेतु राज जमीन देता था जिसके बदले में उपज का 1/4 हिस्सादेना पड़ता था। जैसलमेर जिले में लगभग 500 छोटी बडी खडीनें विकसित हैं जिनसे 1300 हैक्टेयर जमीन सिंचित की जाती है। वर्तमान में ईराक के लोग भी इस प्रणाली को अपनाये हुए हैं। यह ढालवाली भूमि के नीचे निर्मित होता है। इसके दो तरफ मिट्टी की पाल होती है। तीसरी तरफ पत्थर की पक्की चादर बनाई जाती है। खडीन का क्षेत्र विस्तार 5 से 7 किलो मीटर तक होता है। पाल सामान्यतया 2 से 4 मीटर तक ऊंची होती है। पानी की मात्रा अधिक होने पर पानी अगले खडीन में प्रवेश कर जाता है। सूखने पर पिछली खडीन की भूमि में नमी के आधार पर फसलें उगाई जाती है। मरू क्षेत्र में इन्हीं परिस्थितियों में गेहूँ की फसल उगाई जाती है। खडीन तकनीकी द्वारा बंजर भूमि को भी कृषि योग्य बनाया जाता है। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है उसे खडीन तथा इसे रोकने वाले बांध को खडीन बांध कहते हैं। खडीन बांध इस प्रकार से बनाए जाते हैं ताकि पानी की अधिक आवन पर अतिरिक्त पानी ऊपर से निकल जाए। गहरी खडीनों में पानी को फाटक से आवश्यकतानुसार निकाल दिया जाता है।खडीनों में बहकर आने वाला जल अपने साथ उर्वरक मिट्टी बहाकर लाता है। जिससे उपज अच्छी होती हैं। खडीन पायतान क्षेत्र में पशु चरते है जिससे पशुओं द्वारा विसरित
    गोबर मृदा (भूमि) को उपजाऊ बनाता है। खडीनों के नीचे ढलान में कुआं भी बनाया जाता है जिसमें खडीन से रिस कर पानी आता रहता है, जो पीने के उपयोग में आता है। जल प्रबधन कार्यक्रम में परम्परागत निर्मित प्राचीन खडीनों का वैज्ञानिक रख-रखाव होना चाहिए तथा नई खडीनें पारम्परिक तकनीकी ज्ञान के सहारे निर्मित की जानी चाहिए। राजस्थान सरकार ने नई खडीने बनवाने की योजना बनाई हैं, वे निम्न गुणवत्ता की हैं जो तेज वर्षा को सह नहीं पाती एवं उनमें दरारे पड जाती है।

  • टोबा : टोबा एक महत्वपूर्ण पारम्परिक जल प्रबन्धन है, यह नाडी के समान आकृतिवाला होता है। यह नाडी से अधिक गहरा होता है। सघन संरचना वाली भूमि, जिसमें पानी का रिसाब कम होता है, टोबा निर्माण के लिए यह उपयुक्त स्थान माना जाता है। इसका ढलान नीचे की ओर होना चाहिए। टोबा के आस-पास नमी होने के कारण प्राकृतिक घास उग आती है जिसे जानवर चरते हैं। प्रत्येक गाँव में जनसंख्या के हिसाब से टोबा बनाये जाते हैं प्रत्येक जाति के लोग अपने अपने टोबा पर झोपडि़यां बना लेते हैं। टोबा में वर्ष भर पानी उपलब्ध रहता है। टोबा में पानी कभी-कभी कम हो जाता है, तो आपसी सहमति से जल का समुचित प्रयोग करते है। एक टोबा के जल का उपयोग सामान्यतः बीस परिवार तक कर सकते हैं। समय समय पर टोबा की खुदाई करके पायतान (आगोर) को बढाया जा सकता है। इसे गहरा किया जाता है, ताकि पानी का वाष्पीकरण कम हो।

  • झालरा : झालरा, अपने से ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर (पायतान) नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने हेतु नहीं, बल्कि धार्मिक रिवाजों तथा सामूहिक स्नान आदि कार्यो के उपयोग में आता था। इनका आकार आयताकार होता है। इनके तीन ओर सीढियां बनी होती थी। 1660 ई. में, निर्मित जोधपुर का महामन्दिर झालरा प्रसिद्ध था। अधिकांश झालराओं का आजकल प्रयोग बन्द हो गया है। जल संचय की दृष्टि से इनका विशेष महत्व रहा है। झालराओं का वास्तुशिल्प सुन्दर होता हैं। इनके संरक्षण की आवश्यकता है। प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ जनसहयोग की भी आवश्यकता है।

  • कुई या बेरी : कुई या बेरी सामान्यतः तालाब के पास बनाई जाती है। जिसमें तालाब का पानी रिसता हुआ जमा होता है। कुई मोटे तोर पर 10 से 12 मीटर गहरी होती हैं। इनका मुँह लकड़ी के फन्टों से ढंका रहता है ताकि किसी के गिरने का डर न रहे। पश्चिमी राजस्थान में इनकी अधिक संख्या है। भारत-पाक सीमा से लगे जिलों में इनकी मौजूदगी अधिक हैं। 1987 के भयंकर सूखे के समय सारे तालाबों का पानी सूख गया था, तब भी बेरियों में पानी आ रहा था।
                   परम्परागत जल-प्रबन्धन के अन्तर्गत स्थानीय ज्ञान की आपात व्यवस्था कुई या बेरी में देखी जा सकती है। खेत के चारों तरफ मेंड ऊँची करदी जाती हैं जिससे बरसाती पानी जमीन में समा जाता है। खेत के बीच में एक छिछला कुआँ खोद देते हैं जहां इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा हो जाता है। इसे काम में लिया जाता है।

  • वर्षा जल संरक्षण की शब्दावली(1) आगौर (पायतान)
    वर्षा जल को नाड़ी या तालाब में उतारने के लिए उसके चारों ओर मिट्टी को दबाकर आगोर (पायतान) बनाया जाता है।
    (2) टांका:-
    वर्षाजल एकत्रित करने के लिए बनाया गया हौद।
    (3) नाडी:-
    छोटी तलैया जिसमें वर्षा का जल भरा जाता है।
    (4) नेहटा (नेष्टा):-
    नाडी या तालाब से अतिरिक्त जल की निकासी के लिए उसके साथ नेहटा बनाया जाता है जिससे होकर अतिरिक्त जल निकट स्थित दूसरी नाड़ी, तालाब या खेत में चला जाये।
    (5) पालर पाणी:-
    नाडी या टांके में जमा वर्षा का जल।
    (6) बावड़ी:
    वापिका, वापी, कर्कन्धु, शकन्धु आदि नामों से उद्बोधित। पश्चिमी राजस्थान में इस तरह के कुएं (बावडी) खोदने की परम्परा ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग शक जाति अपने साथ लेकर आई थी। जोधपुर व भीनमान में आज भी 700-800 ई. में निर्मित बावडियां मौजूद है।
    (7) बेरी:
    छोटा कुआं, कुईयां, जो पश्चिमी राजस्थान में निर्मित हैं।
    (8) मदार
    नाडी या तालाब में जल आने के लिए निर्धारित की गई, धरती की सीमा को मदार कहते हैं। मदार की सीमा में मल-मूत्र त्याग वर्जित होता है।

  • परम्परागत जल स्रोतों की उपयोगिता :
    (1) पराम्परिक जल प्रबन्धन का पुनरूद्वार कर राज्य में कृषि अर्थ व्यवस्था को बढाया जा सकता है।
    (2) प्राकृतिक आपदा के समय इस प्रकार के जल प्रबन्धन से समस्या का सामना किया जा सकता है।
    (3) पारम्परिक जल स्रोतो के माध्यम से सूखे व बाढ जैसी विपदा के खिलाफ लड़ने के लिए सक्षम बन सकते हैं।
    (4) परम्परागत जल प्रबन्धन की प्रणाली कृषि का एक स्तम्भ बन सकती है।
    (5) परम्परागत जल स्रोतों की पुनस्र्थापना से नयी पीढ़ी के लिए रोजगार के अवसर मिलेगें।

  • परम्परागत जल स्रोतो की वर्तमान में प्रासंगिकता : जल संचय और संरक्षण प्रबन्ध हमारे यहां सदियों पुराना है। राजस्थान में खडीन, कुंड और नाडी महाराष्ट्र में बंधारा और ताल, हिमाचल में कुहल, तमिलनाड़ू में इरी, केरल में सुरंगम, जम्मू क्षेत्र में पोखर और कर्नाटक में कट्टा आदि नाम जल प्रबन्धन के प्राचीन स्रोत थे। ये सभी परम्परागत जल स्रोत वहां की पारिस्थितिकी और संस्कृति की अनुरूपता के आधार पर हैं। स्थानीय जरूरतों को पर्यावरण से तालमेल रखते हुए पूरा किया है। आधुनिक व्यवस्थाएं पर्यावरण का दोहन करती है।भारत में वर्षा मौसमी है। तीन महिनें ही होती है। देश के 80 प्रतिशत हिस्से में इन तीन महिनों में ही 80 प्रतिशत वर्षात हो जाती है। वर्षात का बहुत ज्यादा पानी नदियों के माध्यम से बह जाता है।जरूरत इस बात की है कि वर्षा के पानी को स्थानीय जरूरतों और भौगोलिक स्थितियों के हिसाब से संग्रहित किया जाना चाहिए। इससे भू-जल का भण्डारण भी हो जाता है। जल संचय की पारम्परिक प्रणालियों से लोगों की घरेलू और सिंचाई सम्बन्धी जरूरतें पूरी होती हैं। साक्ष्यों से पता चलता कि प्राचीन भारत के शासको ने जल संचय की बेहतर प्रणालियों को अपनाते हुए जल और सिंचाई की आपूर्ति के लिए नहरों का न केवल निर्माण करवाया था, बल्कि उनके रख रखाव हेतु आवश्यक प्रशासनिक व्यवस्थाएं भी विकसित की थी। पारम्परिक प्रणालियों के सामुदायिक जल प्रबन्धन के कारण हर व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता पूरी होती थी। इन जल प्रबन्धन प्रणालियों की आज अधिक प्रासंगिकता है जिन्होनें सूखे या अकाल के लम्बे दोर में समुदायों को जीवन दान दिया है। जल की आधुनिक प्रणाली में कमी तब महसूस होती हैं, जब बिजली नहीं आती, नल में पानी सूखता हैं, बांध में मिट्टी भरने से पानी क्षमता नहीं रहती। उस समय पारम्परिक प्रणालियां याद आती है। देश के बहुत बड़े हिस्से में आधुनिक प्रणाली भारी लागत की वजह से पहुंच ही नहीं सकती। अतः वहां लोग पीने के जल व सिंचाई के लिए परम्परागत जल प्रबंधन पर निर्भर हैं। पारम्परिक जल प्रबंधन प्रणालियां पुराना ढांचा नहीं हैं। मुनाफाखोर प्रणाली से भिन्न है। नलकूपों से भारी मात्रा में भू-जल निकाला जा रहा हैं। सरकारी एजेन्सियों को यह पता नहीं कि यह सब पारिस्थितिकीय बुनियादी मानदण्डों के विपरीत है। इन प्रणालियों ने सरकार पर आत्म निर्भरता बढा दी। पारम्परिक प्रणालियों में सस्ती, आसान तकनीकी काप्रयोग होता था, जिसे स्थानीय लोग भी आसानी से बनाए रख सकते थे। पानी आर्थिक विकास का बडा आधार है। जल प्रबन्धन प्रणालियों का यदि व्यवहारिक समता और समुदाय आधारित विकास करना है, तो जल संग्रहण की परम्परागत प्रणालियों का निर्माण आज भी प्रसंगिक हैं।

  • वर्षाजल प्रबन्धन की परम्परागत प्रणालियों का पतन : देश प्रदेश की परम्परागत जल संग्रहण प्रणालियां आज समाप्त प्रायः हैं। इनकी उपेक्षा करदी गई है। मौजूदा जल आपूर्ति एवं जल प्रबन्धन प्रणाली जरूरत के हिसाब से विफल हैं। जंगल कटाई के कारण जल ग्रहण क्षेत्र में मिट्टी जमने के कारण तालाब उपयोग के योग्य नहीं रह गये हैं। तालाब क्षेत्रों में अतिक्रमण से भूमिगत जल का स्तर नीचे चला गया है, अधिकांश कुएं सूख गये हैं।

  • परम्परागत जल प्रबन्धन प्रणालियों के पतन के कारण : विद्वान अग्रवाल एवं एस नारायण के अनुसार जल प्रणालियों के पतन के निम्नांकित कारण है-
    1. बढती आबादी और जल आपूर्ति की अधिक मांग, जिसे परम्परागत जल स्रोतों से पूरा नहीं किया जा सकता था जिसके कारण ये प्रणालियां उपेक्षित हो गयी।
    2. व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं को सरकारी प्रोत्सवाहन ने, परम्परागत जल प्रबन्धन प्रणालियों के रख रखाव में सक्रिय सामुदायिक भागीदारी को समाप्त कर दिया।
    3. खेती का व्यवसायीकरण और नकदी फसलों का व्यापकता ने, ऐसी प्रणालियों को नकार दिया।
    4. उपनिवेशकाल में निवेश की पद्धति ने सिंचाई की छोटी प्रणालियों की उपेक्षा की।
    5. पानी को पर्यावरण के व्यापक प्रबन्धन की देन के रूप में समझने में सरकारी एजेन्सियों की असमर्थता।
                                   इसके अतिरिक्त कुछ व्यवस्थाओं में सामाजिक विरोधाभास इतने पैदा हो गये कि ये व्यवस्थाएं चरमरा गई। परम्परागत जल प्रबन्धन में सामुदायिक सहयोग अनिवार्य है, ऐसे में जब समुदाय टूट जाए तो प्रणालियों का पतन हो जाता है। यदि लोगों का परम्परागत जल प्रबन्धन में स्वतः श्रम व धन का योगदान रहेगा, वहां पर ऐसी प्रणालियां काम करती रहेगी, जैसे हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में ‘कुहल’ जैसी पारम्परिक प्रणालियां आज भी मौजूद हैं।
                             परम्परागत जल प्रबन्धन प्रणालियों का आकार भी छोटा होता था, ताकि समुदाय अपने श्रम, पूंजी व ज्ञान के बूते पर उन्हें आसानी से संभाल सके। जब आधाुनिक प्रणालियां ठीक इसके विपरीत हैं जो भारी सरकारी कोष और नौकरशाही के तामझाम के बिना काम नहीं करती है। अतः राष्ट्रीय नीति लघु जल संचय प्रणालियों को और प्राकृतिक संसाधनों के सामुदायिक प्रबन्धन को बढावा देने वाली होनी चाहिए। इससे सरकार को भी मदद मिलेगी तथा लोगों की मूलभूत जरूरतें पूरी होगी। परम्परागत जल प्रबन्धन प्रणालियां आखिर हमारी विरासत का हिस्सा है।

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