Friday, 16 September 2011

राजस्थान की हिंदी कविता में व्यंग्यविधान


डॉ. रमाकांत शर्मा





हिंदी कविता में व्यंग्यविधान की एक लम्बी और सार्थक परम्परा रही है। कबीर, भारतेंदु, निराला और नागार्जुन से लेकर आज की कविता तक उसकी व्यंग्यधर्मिता बरकरार है। जब तक समाज में असंगतियाँ और विसंगतियाँ रहेंगी, उसकी जायज संतान के रूप में व्यंग्य-कविताएँ भी जन्म लेती रहेंगी। समकालीन कविता में तो व्यंग्यबोध को उसकी विशेष प्रवृत्ति के रूप में रेखांकित किया गया है। अक्सर, व्यंग्य को हास्य के साथ अथवा हास्य को व्यंग्य के साथ जोडने की भूल आलोचक करते आये हैं, लेकिन मेरी नजर में व्यंग्य का अपना अलग अस्तित्त्व है। व्यंग्य का दरजा मनोरंजनात्मक हास्यलेखन से कहीं ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है। हास्य, अक्सर सस्ता, सरल और कम जोखिम भरा है, जबकि व्यंग्य-लेखन कठिन है और खतरों की राह से गुजरता है। सच्चा व्यंग्य करुणा और क्रोध की उपज होता है, साथ ही विशेष शब्दविधान और टेकनीक की माँग करता है।

व्यंग्यकार पहले खुद बुरी तरह बेचैन और पीडत होता है तब बाद में जाकर दूसरों को बेचैन करने के लिए अपनी कलम को तेज छुरी या बाण की नोक के रूप में इस्तेमाल करता है। वह कभी दूसरे को, तो कभी खुद को व्यंग्य का निशाना बनाता है। व्यंग्यकार सच्चे अर्थों में समाज की सजग पहरूए हुआ करते हैं।
जहाँ तक राजस्थान की हिंदी कविता में व्यंग्य का प्रश्न है, उसे हिंदी की जातीय काव्य परम्परा के विकास के एक हिस्से के रूप में देखा जा सकता है। इस मरुप्रदेश की व्यंग्य कविताओं के पीछे गहरा असंतोष, व्यापक पीडाबोध और तेज आक्रोश सक्रिय रहा है। खीज, क्षोभ, क्रोध, कसक, तिलमिलाहट के भाव उसमें एक साथ उभर कर आये हैं। दोहरी गुलामी, ठाकुरों के अत्याचार, रूढयाँ और अंधविश्वास, पाखण्ड और सामाजिक विसंगतियों पर राजस्थान के सजग और दृष्टिसम्पन्न कवियों के व्यंग्य वज्र बनकर टूटे हैं। इनके पास गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ पैनी बहिर्दृष्टि भी मौजूद रही है।
जैसे मैंने पूर्व में कहा है, कि राजस्थान की हिंदी कविता अपनी स्थानिकता को बनाये रखते हुए भी हमारी जातीय काव्य-परम्परा का ही अंग है। आजादी के पूर्व और उसके आसपास के युग में गणेशचन्द्र जोशी 'मन्वन्तर', सुधीन्द्र, रांगेय राघव, कन्हैयालाल सेठिया, विजयसिंह 'पथिक', जयनारायण व्यास, गणेशीलाल 'उस्ताद', धीरजमल बछावत, अमोलक चंद सुराणा और काला बादल जैसे कवियों की कविताओं में विदेशी हुकूमत और सामन्तशाही के विरुद्ध तीखे व्यंग्य मिलते हैं। यद्यपि इन कवियों की कविताओं का सरोकार, स्थानीय घटनाओं और जन आन्दोलनों से था, लेकिन उनके मूल में व्यापक राष्ट्रीय भावना काम कर रही थी।
द्विवेदीयुगीन राजस्थान के कवि गणेशचन्द्र जोशी 'मन्वन्तर' ने राजनीतिक और सामाजिक छल-छद्म को उद्घाटित करने वाली दाहक और दंशक कविताएँ लिखीं।
एम.एल.ए.'ए मैले*!' कहकर संबोधित करने का साहस इस कवि के पास ही था। मन्वन्तर ने लिखा कि -
नैतिकता आज मूर्खता है/मानवता मानस का फितूर  
हम श्रमिक कृषक का शोषण नहीं सहेंगे 
दुर्बल है लेकिन दब कर नहीं रहेंगे 
कट जायें जबानें, क्या, खिंच जायें खालें 
फिर भी मनुष्य को ईश्वर नहीं कहेंगे 
यह कवि मन्वन्तर ही थे जिन्होंने लिखा कि - ''जितना जाना-सो विज्ञान, शेष रहा सो, सब भगवान*!''
कवि सुधीन्द्र ने ईश्वर, धर्म, धन और सत्ता को मर्मभेदी चुनौती देते हुए 'मिट्टी की कहानी', 'धर्म' और 'अछूत' जैसी कविताएँ रचीं। सुधीन्द्र ने धर्म के नाम पर हो रही हिंसा को लक्षित करते हुए धर्म पर गाज के गिरने की बात कही -
धर्म ! तुझको तेरे ये भक्त 
अर्घ्य देते शोणित से आज 
चीरकर परधर्मी का माँस 
और उनकी हड्डी को पीस 
चढाते हैं चरणों में भेंट 
प्राप्त करने तेरी आशीष। 
लगभग इसी समय रांगेय राघव ने विदेशी हुकूमत की शोषक-प्रवृत्ति का पर्दाफाश करते हुए लिखा - ''डायन है सरकार फिरंगी/चबा रही है दाँतों से/छीन गरीबों के मुँह का हाँ/कौर दुरंगी घातों से।'' निश्चय ही काव्य शिल्प की दृष्टि से ये कविताएँ कमजोर हैं, लेकिन अपनी व्यंग्यधर्मिता के कारण जयनारायण व्यास की 'गैर जिम्मेदार हुकूमत', उस्ताद की 'आग', धीरजमल बछावत की 'ये सरकारी नौकर', अमोलकचंद सुराणा की 'भूल मत जाना', गणपतिचन्द्र भण्डारी की 'रक्तदीप' जैसी कविताओं ने जनता को 'जाडी नींद' से जगाया और जवानों को जुल्म की जडें काटाने का प्रेरक आह्वान किया। स्वतंत्र्ता-संग्राम कालीन व्यंग्यधर्मिता की पहचान कराने वाली इन कविताओं की अपनी अलग पहचान है।
इस दौर के बाद राजस्थान की हिंदी कविता को नया मुहावरा देकर उसकी व्यंजना शक्ति को तीव्र करने का महत्त्वपूर्ण कार्य नंद चतुर्वेदी, हरीश भादानी, विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, जयसिंह 'नीरज', ताराप्रकाश जोशी, विजेन्द्र, ऋतुराज, रणजीत, शांति भारद्वाज 'राकेश', प्रकाश 'आतुर', चन्द्रदेव, मदन डागा, रामदेव आचार्य, भागीरथ भार्गव, मरुधर मृदुल, भगवतीलाल व्यास आदि कवियों ने किया। इनमें से कुछ कवियों का मूल स्वर, व्यंग्य का नहीं है, लेकिन सामाजिक यथार्थ का कलात्मक निरूपण करते हुए उनकी कविताओं में व्यंग्य बराबर उभर कर सामने आया है।
वरिष्ठ कवि नंद चतुर्वेदी की 'धन का अजगर' और 'चंद लुटेरे' जैसी कविताओं के अलावा 'यह समय मामूली नहीं' की कई कविताओं में कवि की व्यंग्यचेतना पाठकों का ध्यान बराबर आकृष्ट करती रही है। प्रगति के मार्ग में आने वाले अवरोधों को लक्षित करते हुए नंद बाबू लिखते हैं - ''सिर्फ इतना जानते हैं कि हम/रोशनी से बेदखल हुए लोग हैं।'' वे उस जुलूस का भी जिक्र करते हैं जिसमें कुछ लोग ऐसे भी शामिल हैं जिन्हें नकली टाँगें खरीद कर उपलब्ध करवाई गई है। निष्क्रिय बुद्धिजीवियों की शब्द और कर्म के बीच की खाई को रेखांकित करते हुए नंद चतुर्वेदी व्यंग्य का सहारा लेते हैं*-
किताबों की इबारत केवल/शुतुरमुर्ग पढते हैं 
और फिर धूप की तरह गरम 
हवा की तरह फैले 
आकाश की तरह खुले पंख वाले सत्य को 
दबा कर रेत में सिर घुसेड लेते हैं। 
हरीश भादानी ने अपनी प्रगतिशील जनवादी रचना दृष्टि के कारण एक खास पहचान कायम की है। इनके गीतों और कविताओं में सामाजिक-राजनैतिक विसंगतियों और विडम्बनाओं को उजागर करते हुए मानवीय दुनिया के रचाव की दिशाएँ तलाश की गई हैं। हरीश भादानी की कविताएँ धरती के तन पर उभरे फोडों पर नश्तर का काम करती हैं। वे इस सत्य से पूर्णतः वाकिफ हैं कि ��बल्ब की रोशनी शेड में बंद है/सिर्फ परछाई उतरती है बडे फुटपाथ पर। ''कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से हरीश भादानी सजग-सचेत कवि हैं। वे नहीं चाहते कि 'रचा जाये फिर से कोई भव्य नारायण' (नारायण की अस्वीकृति)। तपती रेत के इस कवि की कविताओं में व्याप्त ताप हमारी ठंडी पडती संवेदनाओं को गरमाने में सक्षम है। कहीं-कहीं भादानी की कविताएँ अपनी व्यंग्यात्मकता के कारण बांवलिये के काँटों-सी चुभकर, हमारी जडता को भीतर तक कुरेदती है। 'पितृकल्प' में वे एक स्थान पर लिखते हैं - 
मेरे देश के/पिद्दी से पिद्दी शहर में 
जीने की पहली शर्त है हैसियत । 
इसके बिना मुझ जैसे 
गैरकानूनी कब्जे हैं/सरकारी जमीन पर। 
'सडकवासी राम' में व्यंग्यधर्मिता अपने शिखर पर है। वे कहते हैं -
जीना बहुत जरूरी समझा 
इसीलिए सारे सुख गिरवी रख 
लम्बी उम्र कजर् में ले ली। 
ताराप्रकाश जोशी मूलतः गीतकार हैं, लेकिन इनकी गीति रचनाओं में भूख, गरीबी पर कहीं-कहीं तीखे व्यंग्य-बाण चले हैं। नौकरीपेशा आदमी की आर्थिक तंगी का मार्मिक चित्र् देखिए*- ''मेरा वेतन ऐसे रानी/जैसे गरम तवे का पानी। खाने को कोरी उबासियाँ/पीने को आँखों का पानी, जैसे दुःख ने दुःख से कह दी/ऐसी मेरी राम कहानी।''
इसी व्यंग्य काव्य की परम्परा को आगे बढाते हैं 'ढूंढीराज', 'आदमखोर' और 'कबंध' के रचनाकार विश्वम्भरनाथ उपाध्याय। इनकी कविताओं में परिवेश की भयावहता और टूटते मानव मूल्यों को वाणी मिली है।
दगा, दंगा और दुर्गन्ध की दुरभि संधि को तोडने का सार्थक प्रयास हमें विश्वम्भरनाथ उपाध्याय की व्यंग्यात्मक कविताओं में मिलता है। वे इस बात से बाखबर हैं कि 'शवों की अंतिम क्रिया के लिए गिद्ध गले की थैलियाँ हिला रहे हैं और भेडये भाषण में मगन हैं।'
क्रियाशील ऐन्दि्रक बिम्बों के रचनाकार कवि विजेन्द्र जब भी अपनी कविताओं में व्यंग्य के औजार को उपयोग में लाते हैं तो वह कन्टेण्ट और फार्म के द्वंद्व के भीतर से प्रकट होता है। 'त्रस', 'जनशक्ति', 'उठे गूमडे नीले' और 'धरती कामधेनु से प्यारी' जैसे काव्य-संग्रहों से यह बखूबी प्रमाणित होता है। अपने छोटे कष्ट के सामने बडे कष्ट को भुला देने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए विजेन्द्र लिखते हैं -
तुम अपनी दाढ की पीडा से/परेशान हो 
उधर लोगों को जिंदा जला दिया है। 
जय सिंह 'नीरज' और ऋतुराज की कविताओं में व्यंग्यात्मकता के रंग अलग-अलग प्रकार के हैं। जहाँ नीरज के व्यंग्य सहज-सरल हैं वहाँ ऋतुराज के काव्य व्यंग्य संश्लिष्ट और चामत्कारिक हैं।
नीरज गाँवों में ठाकुरों के आतंक से भलीभाँति वाकिफ हैं। उसी सामंती अंदाज की अभिव्यक्ति देखने लायक है -
वह लट्ठ लिये घूमता है/अरने भैंसे-सा 
डराता और धमकाता है सभी को 
सूरज की ओर जाने वाली/पगडंडियाँ बंद पडी हैं
 वह अपने को ही सूरज सिंह कहता है। 
जयसिंह नीरज की 'शीर्षकहीन कविता', 'दुःखांत समारोह', 'ढाणी का आदमी', 'पहचान', 'असहाय गाँव' आदि कविताओं में ग्राम्यजीवन की विसंगतियाँ व्यंग्यात्मक धार लिए दिखाई देती हैं।
ऋतुराज के व्यंग्य सांकेतिक होते हैं। बोलते कम हैं, इशारे ज्यादा करते हैं। समय और समाज का असली चेहरा इनकी कविताओं में उभर कर सामने आता है। ऋतुराज के लगभग सभी प्रकाशित काव्य-संग्रहों में आपको यह वैशिष्ट्य दिखाई देगा। 'शांतिपाठ' शीर्षक कविता के मर्म को इस व्यंग्य विधान में बखूबी पकडा जा सकता है -

ईश्वर नहीं है/कल्याण हो 
ईश्वर तुम्हारी जेब में तह किया हुआ/कल्याण हो ईश्वर तिजोरी की ठंडी ताक में बंधा हुआ 
कल्याण हो/गले में पडे हीरे के हार की आभा में वह निर्लज्ज/कल्याण हो, कल्याण हो । 
छोटी मछली शांति से सबका भोजन बने 
उसका कल्याण हो। 
इसी प्रकार 'छतरी' शीर्षक कविता में श्रीमंतों की विलासी मानसिकता पर करारा व्यंग्य करते हुए ऋतुराज लिखते हैं, 'विदूषकों और चाटुकारों ने कहा/श्रीमंतों की सवारी के वक्त मनाही नहीं है/फटी चोलियाँ पहने स्त्र्यिों की/उनकी विशाल दृष्टि सदा खोजती है/गरीबी में शारीरिक सम्पन्नता/ लेकिन जघन्य अपराध है घूमना फटी छतरी लिए। ''मरुधर मृदुल के कविता-संग्रह 'आस-पास' के ब्लर्ब पर छपी तसलीमा को संबोधित कविता में निहित व्यंग्य मर्मभेदी है। वे लिखते हैं - 
'तसलीमा तू ने यह क्या किया/सच को सच कह दिया।'
अन्य महत्त्वपूर्ण व्यंग्यधर्मी कवियों में त्रिलाेक गोयल, रणजीत, नंद भारद्वाज, हेमंत शेष, मणिमधुकर, भारतरत्न भार्गव, मदन डागा, भागीरथ भार्गव, सुधा गुप्ता, वेदव्यास, सावित्री डागा, कमर मेवाडी, रेवतीरमण शर्मा, जीवन महता, मूलचंद्र पाठक, आईदान सिंह भाटी, शैलेन्द्र चौहान, हितेश व्यास, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, जनकराज पारीक, अनिल गंगल, विनोद पदरज, सवाई सिंह शेखावत, निशांत, राजेन्द्र बोहरा, शिवयोगी, विष्णुदत्त जोशी, नरेन्द्र निर्मल, अम्बिका दत्त, हरीश करमचंदानी, गोविन्द माथुर, ओम पुरोहित �कागद�, नीलाभ पंडित, दिनेश सिंदल, मीठेश निर्मोही, श्याम महर्षि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों की अधिकांश कविताएँ सामाजिक- राजनैतिक व्यंग्यबोध के ताने-बाने से बुनी हुई हैं।
हिंदी के व्यंग्य कवि के रूप में जिसकी चर्चा निहायत जरूरी है - उसका नाम है स्व. मदन डागा। यदि आप उनके अन्य कविता-संग्रहों को छोडकर, केवल 'यह कैसा मजाक है' शीर्षक संग्रह ही पढ जायें तो आपको इस क्रुद्ध और क्षुब्ध कवि मदन डागा की गहरी मार करने वाली व्यंग्यात्मक क्षमता का परिचय मिल जायेगा। सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों के साथ सत्ता, पूँजी, और मशीन के गठजोड से उत्पन्न अमानवीकरण के खतरे का आदमकद आईना है मदन डागा की कविताएँ। बानगी स्वरूप कुछ उदाहरण देखिए*-

भक्तिकाल कभी खत्म नहीं होता 
उसकी तो मात्र् पुनरावृत्ति होती है 
प्रेम करने की एक उम्र होती है 
चापलूसी करने की कोई उम्र नहीं होती । 
इधर कुछ तथाकथित क्रांतिकारी 
हँसिया पर से हथौडा हटाकर/चमचा रख रहे हैं और हम सब समाजवादी स्वाद चख रहे हैं। 
ऐसी ढेरों व्यंग्य कविताएँ मदन डागा ने लिखीं। दुर्भाग्य से हिंदी-जगत् में उनकी जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई। बहरहाल। रणजीत की कविताओं का मूल स्वर भी व्यंग्य ही रहा है, लेकिन उन्होंने अन्य मूड और मिजाज की कविताएँ भी लिखी हैं। 'इतिहास का दर्द', 'झुलसा हुआ रक्तकमल', 'अभिशप्त आग' आदि संग्रहों में उनकी व्यंग्यधर्मी कविताएँ बहुतायत में मिलेंगी। रणजीत जड माक्र्सवादियों के खिलाफ लिखते हैं कि*-
कब तक खाती रहेगी क्रांति 
एक सद्य प्रसूता भूखी कुतिया की तरह 
अपने ही सबसे सुन्दर बच्चों को। 
इसीप्रकार 'इतिहास का न्याय' कविता में कवि नीतिशास्त्र् और इतिहासबोध के विरोध को व्यंग्यधर्मी बनाता है  
नीति कहती है -
सत्य की हमेशा जीत होती है 

इतिहास कहता है - 
जो जीतता है वह सत्य कहा जाता है । 
भूख और गुलामी किस प्रकार राष्ट्र गौरव के भाव को मिटा डालती है - इसी की ओर संकेत है रणजीत की इस कविता में कि - 'नफरत है मुझे अपने देश से/जहाँ बचपन भीख माँगते जवान होता है/और जवानी गुलामी करते-करते बुढया जाती है।' भगवतीलाल व्यास की 'शताब्दी निरुत्तर है' तथा 'फुटपाथ पर चिडया नाचती है' तथा भागीरथ भार्गव की 'शाही सवारी' और 'मोती की माँ' शीर्षक काव्य-संग्रहों की कविताओं में बेकसों और मुफलिसों के दारुण त्रसदी के व्यंग्यात्मक चित्र् उल्लेखनीय बन पडे हैं। और अन्त में, मैं कुछ ऐसे कवियों का भी जक्र करना चाहूँगा जिनकी कविताएँ प्रकृति, प्रेम, अध्यात्म, दर्शन और आत्म-साक्षात्कार की कविताएँ हैं। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ऐसे कवियों की कविताओं में भी कहीं-कहीं प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में मानवीय मूल्यों के विघटन की पीडा और मानवीय संवेदना पर मंडराते खतरे को व्यंग्य की पतली धार के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। नंदकिशोर आचार्य ऐसे कवियों में शीर्ष स्थानीय हैं। 'यह इस तरह क्यों है*?' कविता में ईश्वर को अंधी गली बताते हुए वे लिखते हैं -
दरअसल, ईश्वर एक अंधी गली है 
जहाँ हर एक रास्ता चुक जाता है 
और मेरे लिए रह जाता है 
इस सडी गली के किसी अंधेरे कोने में 
अपनी भी गुदडी बिछा लूँ । 
एक अन्य कविता 'तुम' में नंदकिशोर आचार्य ने व्यक्ति के ईश्वर बनने की ख्वाहिश में महज 'कमोडिटी' बन जाने की नियति पर व्यंग्य किया है। इनके अतिरिक्त 'तुम्हें क्या हो गया है*?', 'वह मोरपंख', 'हर बार', 'शीर्षासन' और 'हवेलियाँ' जैसी कविताएँ कवि की आरपार देखने की क्षमता की परिचायक है -
हवेलियाँ जितनी ऊँची हैं/उतने ही तंग गोखे हैं - खुलते नहीं जो कभी । 
जंगलों पर, छज्जों पर 
बिखरी रहती हैं बीटें कबूतरों की । 
बडे-बडे आँगन सूने हैं अन्दर - 
बाहर भीड भरे बाजार । 
ऐसी कविताओं की ध्वन्यात्मक काव्यभाषा नंदकिशोर आचार्य की उल्लेखनीय विशेषता बन जाती है। 



No comments:

Post a Comment

Rajasthan GK Fact Set 06 - "Geographical Location and Extent of the Districts of Rajasthan" (राजस्थान के जिलों की भौगोलिक अवस्थिति एवं विस्तार)

Its sixth blog post with new title and topic- "Geographical Location and Extent of the Districts of Rajasthan" (राजस्थान के ...