Wednesday, 14 September 2011

राजस्थान मे प्रमुख इतिहासकार : पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा


सन् 1918 के बाद राजनैतिक चेतना की नई लहर देश में उठी, उसने राष्ट्रीय पुनर्जागरण की प्रवृत्तियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जगाया। इस वर्ष इन्दौर में महात्मा गांधी के सभापतित्व में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ। सन् 1922 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका का नवीन संस्करण प्रारम्भ हुआ जिसका सम्पादन ओझा जी व चन्द्रधर गुलेरी ने किया। उन दिनों भारत विषयक अध्ययन में एक मुख्य पत्र के रूप में इस पत्रिका ने दुनिया भर के विद्वानों का ध्यान अपनी ओर खींचा।ओझा जी आधी शताब्दी तक ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ के रूप में खड़े थे। वे भारत के अतीत का मार्ग टटोलने में निरन्तर आलोक पाते रहे। सिरोही राज्य, सालंकियों तथा राजपूताने के इतिहास के साथ-साथ आपने इतिहास तथा अन्य विषयक कई ग्रंथ लिखे उनमें से उदयपुर राज्य का इतिहास प्रथम खण्ड (1928) द्वितीय खण्ड (1932), डूंगरपुर राज्य का इतिहास (सन् 1936), बांसवाड़ा राज्य का इतिहास (1936) बीकानेर राज्य का इतिहास प्रथम भाग (सन् 1937) द्वितीय भाग (सन् 1940), जोधपुर राज्य का इतिहास प्रथम भाग (1938) दूसरा भाग (1941), प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास (1940) तथा तीन निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त आपने पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।ओझा जी के सम्पर्क में जो भी आया वह स्वयं प्रकाशित हो गया। उनके सम्पर्क से टोंक के मुंशी देवीप्रसाद, जोधपुर के रामकरण आसोपा, कविराज मुरारिदान, अजमेर के हरविलास सारड़ा, मेयो कोलेज के चन्द्रधर गुलेरी, जयपुर के पुरोहित हरिनारायण, जयपुर बीकानेर के रामलाल रत्म, मेवाड़ के मेहता जोधसिंह, रामनारायण दुग्गड़ और मुनि जिनविजय तथा कलकत्ते के पूरणचन्द नाहर आदि उनके मित्रों, सहयोगियों और शिष्यों की एक मण्डली खड़ी हो गई थी जिसने ओझा जी के साथ राजस्थान, गुजरात, सिंध, महाराष्ट्र, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, बिहार, नेपाल तक के इतिहास व पुरातत्व के विवेचन संशोधन में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वीमी श्रद्धानन्द के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने भी 1922 ई. में अजमेर आकर शिष्यत्व ग्रहण किया। (हमारा राजस्थान पृ. 474)ओझा जी अपना काम सन् 1941 तक अनथक भाव से करते रहे। उनका आशीर्वाद व मार्गदर्शन इस बीच राजस्थान की हर सांस्कृतिक चेष्टा को प्राप्त होता रहा। उनका राजपूताने का इतिहास तब तक आधे रास्ते पर पहुंचा था। उनके और काशीप्रसाद जायसवाल के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने इस बीच ‘भारतीय इतिहास परिचय’ नामक संस्था खड़ी की थी। उनका उद्देश्य भारतीय दृष्टि से समस्त अध्ययन को आयोजित करना और भारत की सभी भाषाओं में उसके द्वारा ऊं चे साहित्य का विकास करना था। (वही-पृ. 482)सन् 1941 में ओझा जी ने जयचन्द्र विद्यालंकार को अजमेर बुलाकर कहा कि उनके शोधकार्य का भार वे उठा लें। उसके लिये राजस्थान में भारतीय इतिहास परिषद की एक शाखा स्थापित कर दे। इस विचार का उत्साह से स्वागत किया गया। किन्तु इसके शीघ बाद जापान युद्ध और सन् 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन आ गया। इस राजनैतिक संघर्ष में जयचन्द्र जेल चले गये। सन् 1946 में जब वे जेल से छूट कर आये तब तक राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय इतिहास परिषद के आदर्श के लिये उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। ओझा जी वृद्ध हो चुके थे। 20 अप्रेल 1947 को ओझा जी ने 84 वर्ष की आयु में अपनी जीवन लीला समाप्त की।ओझा जी ने इतिहास और हिन्दी के लिये अपना पूरा जीवन खपा दिया। वे सन् 1927 में भरतपुर अधिवेशन में तथा नडियाद में हुई गुजरात साहित्य सभा में सभापति मनोनीत किये गये। 1928 ई. में उन्होंने हिन्दुस्तानी एकडमी इलहाबाद में मध्यकालीन भारतीय संस्कृतियों पर तीन भाषण दिये। 1937 ई. में आप ओरियण्टल कांफ्रेंस बड़ौदा में इतिहास विभाग के अध्यक्ष बने। इसी वर्ष काशी हिन्दु विश्वविद्यालय ने आपके वृहत कार्य को देखते हुए डी.िलट उपाधि से विभूषित किया। इसी प्रकार 1937 ई. में साहित्य वाचस्पति और वचस्पति से विभूषित किया गया। (राजस्थान के इतिहासकार- पृ. 105)


डा. हुकमसिंह भाटी के शब्दों में ओझा ने राजपूताने के इतिहास के लेखन के लिये विस्तृत ठोसपूर्ण पीठिका बना कर एक अग्रदूत की भांति इतिहास का प्रणयन किया, कई प्रश्नों के उत्तर दिये, कई प्रसंग कायम किये। उन्होंने निरन्तर खोज व गंभीर अध्ययन केबाद राजनैतिक घटनावली की सुनिश्चित परम्परा कायम कर तत्कालीन आदर्शों के अनुसार इतिहास लेखन का प्रयास किया। कई अविदित तिथियों को उद्घाटित किया तथा अशुद्ध तिथियों का शुद्धीकरण किया। अनेक त्रुटित वंशावलियों को शुद्ध किया तथा अनेकानेक ऐतिहासिक लुप्त कड़ियों को जोड़ा। स्थानीय स्रोतों का फारसी आदि स्रोतों से सही तालमेल बैठा कर घटनाओं को परखने का सुयत्न किया। इस प्रकार राजस्थान के इतिहास सम्बन्धी वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान करने वाले वे एकमात्र विद्वान थे। नवीन अनुसंधान में निश्चय ही ओझा जी की यह शोध-साधना हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहेगी और इसके लिये इतिहासकार व संशोधक सदैव उनके अनुगृहीत रहेंगे।

इस समय तक इतिहास के क्षेत्र में ओझाजी की पहचान भारतभर में हो चुकी थी। इसलिये इस क्षेत्र में उनकी सेवाएं भारत सरकार ने भी ली थी। टॉड़ की पुस्तक का प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद कराने का प्रयत्न इन्ही के माध्यम से किया गया था। उनकी दी हुई टिप्पणियों में बहुत सी नई और प्रामाणिक सामग्री सबसे पहले प्रकाश में आयी। क्रान्तिकारी केसरीसिंह बारहठ ने ओझाजी के सहयोग से कविराज सूर्यमल्ल मिश्रण के वहां भास्कर का संस्करण निकाला। उस समय ओझाजी ने भारतीय राजवंशों का विवरण देने वाली एक पुस्तिका निकाली जिसमें दक्षिण के प्रतापी राष्ट्रकूट सम्राटों का विवरण भी था। जोधपुर के कर्नल प्रताप तथा दूसरे राठौड सरदारों में अपना वंश गौरव जगाने और 1911-15 में क्रान्तिकारियों से मिल कर अपना राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा जगाने में ओझा जी के इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण योगदानव था। इस ग्रंथ को ओझाजी ने जोधपुर महाराव के आग्रह पर वहां जाकर सुनाया जिसकी एक प्रति वहीं रखी गई। बाद में पं. सुखदेव प्रसाद ने इसी ग्रंथ के आधार पर अंग्रेजी भाषा में राठौड़ों का इतिहास लिखा । (हमारा राजस्थान-पृथ्वीसिह मेहता – पृ. 471)

ओझाजी इतिहास लेखन और अभिलेखों के संग्रह में इतने जुट गये कि उन्हें बाहरी संसार का भान नहीं रहा। एक के बाद एक वंश का इतिहास लेखन समाज के समक्ष आने लगा। सन 1907 में सोलंकियों का इतिहास लिखकर प्रकाशित किया। इसमें भारत के मध्यकालीन राजवंश का इतिहास पहले पहल प्रकाश में आया। अपनी मातृभूमि सिरोही राज्य के इतिहास द्वारा दक्षिणी पश्चिमी और उत्तरी गुजरात के इतिहास पर बहुत प्रकाश पड़ा। (वहीं पृ 471)।सन् 1908 में पुरातत्व के विभाग को सम्भालने के साथ उनका अध्ययन व्यापक होता गया। राजपुताना पुरातत्व संग्रहालय’ के विभाग में लगभग 30 वर्ष तक आपने सेवा की और उत्तर भारत के अभिलेखों का संग्रह किया। आज उत्तर भारत का जो अभिलेखों का संग्रह उपलब्ध है उसका एक तिहाई संग्रह अकेले ओझा जी के यत्न से किया गया था। (वही 472)सन् 1912-13 में बिहार में काशीप्रसाद जायसवाल के प्राचीन भारतीय राज संस्था व कानून पर मौलिक लेख निकले थे। ओझाजी की तरह ही उनका भी राष्ट्रीय चिन्तन था जो मौलिक व स्वतंत्र था। इस चिन्तन की पृष्ठभूमि में जिन युगपुरूषों की प्रेरणा उसे मिली थी उनमें प्रमुख थे-( वीर सावरकर, लाला हरदयाल व श्यामजी कृष्ण वर्मा) (वही पृ. 473) सन् 1914 में ओझाजी को रायबहादुर का खिताब मिला।लगभग 28 वर्ष के गहन अध्ययन के पश्चात् ओझा जी के सन 1925 में लिधा राजपूताने का इतिहास का पहला गुच्छक प्रकाश में आया। पहला गुव्छक निकलने पर हॉलैण्ड के लाईदन शहर से निकलने वाले भारतीय पुरातत्व के वार्षिक ग्रंथ निर्देश में उसका स्वागत उसके सम्पादक आलन्देज ने विद्वान डा. फोरनल के साथ बडे आदर से लिखकर किया। “यह राजपूताना का दूसरा कीर्ति स्तम्भ खड़ा हो रहा है।”इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण सन 1937 में निकला। इसकी विषद भूमिका में ओझा जी ने इतिहास का महत्त्व और उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए राजपुताना के इतिहास विषयक प्रकाशित पुस्तकों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों, हस्तलिखित ग्रंथों का विवेचन किया है। इसमें पहले राजपूताने की भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारी दी है। उसके पश्चात विसेंट स्मिथ और विदेशी विद्वानों की राजपूतों की उत्त्पत्ति के बारे में जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि राजपूत शक, कुषाण, हूण, गोड, भड़ व गुर्जर जातियों से उत्पन्न हुए है इस निर्मूल कल्पना की जांच पड़ताल की तथा इसका खण्डन किया। इसी प्रकार चौहान, सोलंकी, प्रतिहार और परमार वंशियों को अग्निवंशी मानकर सिद्ध करने की कोशिश की। ओझा जी ने इस मत का भी खण्डन किया। (राजस्थान के इतिहासकार – पृ.109)


प्राचीन राजपूतों के रीति- रिवाज, उनका सैन्य प्रबन्ध, राज्य व्यवस्था, आदि सामाजिक व प्रशासनिक पहलुओं को ओझाजी ने उजागर करने का प्रयास किया है। राजपूताने से सम्बन्ध रखने वाले प्राचीन राजवंशों में मौर्य क्षत्रप (शक), कुषाण, हूण, गुप्त, गुर्जर, वैस, चावड़ा, प्रतिहार, परमार, नाग, तंवर, दहिया, दाहिमा, निकुम्प, डोडिया और गौड आदि वंशों का ताम्रपत्रों व शिलालेखों के आधार पर आपने प्रामाणिक विवरण दिया है। तत्पश्चात मुसलमानों, मराठों और अंग्रेजों का राजपूताने से सम्बन्ध के बारे में जानकारी दी है जो कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक के परिशिष्ट में क्षत्रियों के गोत्र तथा इसके नामान्त में सिंह पद का प्रचार कैसे हुआ इस विषय पर भी ओझा जी ने अपने विचार प्रकट किये हैं।

मेवाड़ और सिरोही राज्य की सीमा पर एक गांव है रोहिड़ा। अरावली श्रृंखला के पश्चिम में तलहटी में बसा यह गांव उस दिन धन्य हो गया जिस दिन हीराचन्द ओझा के घर पुत्र रत्न ने पदार्पण किया, वह दिन था मंगलवार भाद्रपद सुदि पंचमी सं. 1920 तदनुसार 15 सितम्बर 1863 ई.। अति सामान्य ब्राह्मण परिवार में जन्म होने के कारण प्रारम्भिक शिक्षा उस छोटे से गांव में ही हुई। संस्कृत भाषा का अध्ययन गौरीशंकर ने अपने पिता के पास रहकर किया। बाद में 1877 में मात्र 14 वर्ष की आयु में उच्च शिक्षा के लिये वे मुम्बई गये जहां 1885 में एलफिंस्टन हाईस्कूल से मेट्रिक्यूलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की। रोगग्रस्त हो जाने के कारण वे इन्टरमीडियेट की परीक्षा न दे सके और गांव लौट आये। (राजस्थान के इतिहासकार – सं. 31.  डा. हुकमसिंह भाटी पृ. 104)

रोहिड़ा आने पर उन्हें राजपूताने के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा हुई इस संदर्भ में उन्होंने “टॉड” की पुस्तक का अध्ययन किया। इस ग्रंथ ने उन्हें बहुत प्रेरणा दी। वे सच्चे ब्राह्मण की तरह अपने देश और मातृभूमि के अध्ययन के लिये प्रवृत्त हुए। आर्थिक और सामाजिक प्रलोभनों से आंखें मूंदकर अपनी पत्नी को साथ लेकर सिरोही से गोगुन्दा के रास्ते पैदल चलते हुए मेवाड़ के अनेक छिपे हुए और अप्रसिद्ध ऐतिहासिक एवं पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों को खोज खोज कर उनकी तीर्थ यात्रा करते हुए 1888 में उदयपुर पहुंचे। (हमारा राजस्थान-पृथ्वीसिंह मेहता पृ. 262)

उदयपुर में आपका सम्पर्क कविराजा श्यामलदास से आया। उनकी पैनी दृष्टि ने ओझा की प्रतिभा को तुरंत पहचान लिया। उनकी विद्वत्ता से वे प्रभावित भी हुए। कविराजा के आग्रह पर ही महाराणा फतहसिंह ने उसे इतिहास विभाग में रख दिया। उस समय तक “वीर विनोद” के लेखन का कार्य लगभग समाप्त हो चुका था। अतः ओझाजी को विक्टोरिया हाल के सार्वजनिक पुस्तकालय व संग्रहालय का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उन्हें हिन्दी में लेखन कार्य करने की प्रेरणा “िवनायक शात्री बेताल” से मिली। इसी काल में ओझा जी ने भारतीय लिपियों का गहनता से अध्ययन किया। यूरोपीय विद्वान वुर्हलर की लिपि संबंधित पुस्तक का भी अध्ययन किया। ओझा जी से पूर्व भारतीय लिपि के बारे में यह धारणा थी कि भारतीय लिपि का विकास मिश्रा, हिब्रू के मिश्रण से हुआ है और वह भी ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी में। (हमारा राजस्थान-पृ. 262-63)

सन् 1894 ई. में “भारतीय प्राचीन लिपि माला” नामक पुस्तक लिखकर भाषा और लिपि के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उन्होंने बुइलर को पत्र लिखकर अपने तर्कों और प्रमाणों के आधार पर उनके द्वारा स्थापित विचार को निर्मूल सिद्ध किया। तब से दुनिया ने उनके सिद्धान्त को प्रतिष्ठा प्रदान की। आज यह पुस्तक सं.रा. संघ के उन पुस्तकों में है जो विश्व की निधि घोषित किये गये हैं। (वही पृ. 263)।इस पुस्तक के माध्यम से ओझा जी ने संसार के समक्ष यह विचार रखा कि ब्राह्मी लिपि समझने के पश्चात् दूसरी लिपियों को आसानी से समझा जा सकता है। क्योंकि दूसरी लिपियों में थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता जाता है। ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति पर भी आपने इस पुस्तक में प्रकाश डाला है। बाद में शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों व दानपत्रों पर उत्कीर्ण ब्राह्मी, गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा, बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलगू, कन्नड़ी, कलिंग, तमिल, खरोष्ठी आदि लिपियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। इसके लिये ओझाजी ने विविध 45 लिपिपत्र तैयार कर अलग अलग भाषाओं में अक्षरों का बोध कराया। उसके पश्चात भारतवर्ष की लिपियों और अंकों की उत्पत्ति के बारे में उल्लेखनीय जानकारी दी। ( राजस्थान के इतिहासकार-पृ. 107)

सन् 1894 के बाद ओझाजी राजस्थान के इतिहास के मनन, पुनः शोधन व संकलन में लग गये। उनके अध्ययन की गंभीरता को पहचानते हुए विद्या विशारद जर्मन विद्वान कील हार्न ने सच ही लिखा था कि `ओझा से अधिक अपने देश के इतिहास को कौन जानता है।’ सन 1902 में लार्ड कर्जन दिल्ली दरबार में उपस्थित रहने के लिये महाराणा फतहसिंह को स्वयं निमंत्रण देने आये। रेजीडेण्ट के माध्यम से भारत सरकार को यह सूचना मिली थी कि महाराणा 1903 के दिल्ली दरबार में नहीं आयेंगे। इसलिये आग्रह करने स्वयं वायसराय उदयपुर आये थे। वहीं उनका परिचय ओझा जी से आया। उनकी विद्वत्ता और लगन से वे बड़े प्रभावित हुए। भारत के बारे में विशेष जानकारी के लिये उत्तर भारत का केन्द्र वे अजमेर को बनाना चाहते थे। ओझाजी से मिल कर उन्हें लगा कि पुरातात्विक कार्य के लिये यही व्यक्ति उपयुक्त हैं अतः उन्होंने ओझा जी के सम्मुख भारत के पुरातत्व के उच्च पद का प्रस्ताव रखा। पर उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे मेवाड़ में रहकर ही उसकी सेवा करना चाहते थे।


कुछ वर्ष पश्चात सन 1908 में लार्ड मिण्टो ने लार्ड कर्जन की योजना अनुसार `राजपूताना पुरातत्व संग्रहालय’ की स्थापना अजमेर में की। इसके पालक के रूप में ओझाजी को बुलावा आया। वे मेवाड़ नहीं छोड़ते पर विद्वत सम्मान के प्रति महाराणा फतहसिंह की उदासीनता के कारण सन 1908 में वे उदयपुर छोड़कर अजमेर आ गये।

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