राजस्थान अपनी संस्कृति के लिए पूरे विश्व में यूं ही इतना विख्यात नहीं है। भारतभूमि पर ऐसे कई संत और महात्मा हुए हैं जिन्होंने धर्म और भगवान को रोम-रोम में बसा कर दूसरों के सामने एक आदर्श के रुप में पेश किया है । मोक्ष और शांति की राह को भारतीय संतों ने सरल बना दिया है । भजन और स्तुति की रचनाएं कर आमजन को भगवान के और समीप पहुंचा दिया है । ऐसे ही संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है।
मीराबाई का जन्म सोलहवीं शताब्दी में, राठौड़ों की मेड़तिया शाखा के प्रवर्तक राव दूदाजी के पुत्र रतनसिंह के यहां मारवाड़ के एक गांव कुड़की में लगभग 1498 ई. में हुआ था। इनका लालन-पालन इनके दादा - दादूजी के यहां मेड़ता में हुआ। बचपन से ही वे कृष्ण-भक्ति में रम गई थीं। मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से मीरा का ब्याह हुआ था। परंतु थोड़े समय में ही वे विधवा हो गई थीं। मीरा की कृष्ण-भक्ति न उनके देवरों को पसंद थी, न उसकी सास-ननद को। कहते हैं मीरा को विष दिया गया, सर्प भेजा गया परंतु मीरा बच गई। अंत में मीरा ने मेवाड़ छोड़ दिया और वृंदावन होती हुई द्वारिका गई। वहीं जीवन के अंत तक वे रहीं।
मीरा की कीर्ति का आधार उनके पद हैं। ये पद और रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीरा के पद हमारे देश की अनमोल संपत्ति हैं। आंसुओं से गीले ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहजशैली की सरसता के कारण मीरा की व्यथासिक्त पदावली बरबस सबको आकर्षित कर लेती हैं। मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की - बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद और राग सोरठ के पद मीरबाई द्वारा रचे गए ग्रंथ हैं । इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहजशैली की सरसता के कारण मीरा की व्यथासिक्त पदावली बरबस सबको आकर्षित कर लेती हैं। प्रधानतरू वह सगुणोपासक थीं तथापि उनके पदों में निर्गुणोपासना का प्रभाव भी यत्र-तत्र मिलता है। आत्म-समर्पण की तल्लीनता से पूर्ण उनके पदों में संगीत की राग-रागिनियां भी घुलमिल गई हैं। दर्द-दीवानी मीरा उन्माद की तीव्रता से भरे अपने कस्र्ण-मधुर पदों के कारण सदैव अमर रहेगी।
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
छांड़ि दई कुल की कानि कहा करै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथि घृत काढ़ि लियौ डारि दई छोई।
भगत देखि राजी भइ, जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरिधर तारो अब मोई।
.......
बसौ मोरे नैनन में नंदलाल।
मोहनि मूरति, सांवरी सूरति, नैना बने बिसाल।
मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, अस्र्ण तिलक दिये भाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल।
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरां प्रभु संतन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।
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