Saturday, 27 August 2011

१८५७ की क्रांति में राजस्थानी शासकों की भूमिका

राहुल तोन्गारिया




१८५७ में राजस्थान क्रांति के पूर्व जहाँ राजस्थान में अनेक शासक ब्रिटिश भक्त थे, वहीं राजपूत सामन्तों का एक वर्ग ब्रिटिश सरकार का विरोध कर रहा था। अत: उसने अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस अवसर पर उन्हें जनता का समर्थन भी प्राप्त हुआ। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि राजस्थान की जनता में भी ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध असंतोष की भावनाएं विद्यमान थी।

विप्लव का सूत्रपात - राजस्थान में नसीराबाद में सर्वप्रथम विप्लव का सूत्रपात हुआ, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे -
(१) ए.जी.जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) ने अजमेर में स्थित १५वीं बंगाल इन्फैन्ट्री को अविश्वास के कारण नसीराबाद भेज दिया था, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष के कारण नसीराबाद भेज दिया था, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष उत्पन्न हो गया।
(२) अंग्रेजों ने फस्र्ट बम्बई लांसर्स के सैनकों से नसीराबाद में गश्त लगवाना प्रापम्भ कर दिया व बारुद भरी तौपें तैयार करवाई, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष व्याप्त हो गया।
(३) २८ मई, १८५७ ई. को नेटिव इन्फैक्ट्री के सैनिकों ने नसीराबाद में विद्रोह कर दिया। अन्य टुकड़ियाँ भी उनके समर्थन में आ गयी। उन्होंने कई अंग्रेजों को मार डाला तथा उनके घर जला दिए। उसके बाद विद्रोह सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।
नीमच में विद्रोह
३ जून, १८५७ ई. को नीमच के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और अनेक अंग्रोजों को मार डाला। वे नीमच से रवाना हो गए और चित्तोड़गढ़, हम्मीरगढ़, बनेड़, शाहपुरा, निम्बाहेड़ा, देवली, टोंक तथा आगरा तक होते हुए दिल्ली पहुंचे सभी स्थानों पर जनता ने विद्रोही सैनिकों का स्वागत किया। ८ जून, १८५७ ई. को कम्पनी सरकार ने नीमच पर अधिकार कर लिया। इस समय मेवाड़ के सैनिकों में भी असंतोष फैल रहा था, परन्तु कप्तान शावर्स ने सूझबूझ का परिचय दिया, जिसके कारण वहाँ विद्रोह नहो सका।

जोधपुर में विद्रोह
जोधपुर के शासक तख्तसिंह के विरुद्ध वहाँ के जागीरदारों में घोर असंतोष व्याप्त था। इन विरोधियों का नेतृत्व आउवा का ठाकुर कुशाल सिंह कर रहा था। २१ अगस्त १८५७ ई. को जोधपुर लीजियन को सैनिक टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया। चूंकि कुशाल सिंह अंग्रेजों का विरोधी था अत: उसने इन विद्रोही को अपने साथ मिला लिया।
इस पर कुशाल सिंह का सामना करने हेतु लिफ्टिनेट हीथकोट के नेतृत्व में जोधपुर की राजकीय फौज आई, जिसे कुशाल सिंह ने ८ सितम्बर, १८५७ ई. को आउवा के निकट परास्त किया। तत्पश्चात् जार्ज लारेन्स ने १८ सितम्बर १८५७ को आउवा के किले पर आक्रमण किया और विद्रोहियों को वहां से खदेड़ दिया। किन्तु विद्रोहियों के हाथों वह बुरी तरह पराजित हुआ। इसी जोधपुर का पोलिटिकल एजेन्ट कप्तान मोंक मेसन विद्रोहियों के हाथों मारा गया।
इस पराजय का बदला लेने के लिए ब्रिगेडियर होम्स ने एक सेना के साथ प्रस्थान किया और २० जनवरी १८५८ ई. को उसने आउवा पर आक्रमण कर दिया। इस समय तक विद्रोही सैनिक दिल्ली में पहुँच चुके थे तथा अंग्रोजों ने आसोप गूलर तथा आलणियावास की जागीरों पर अधिकार कर लिया था। जब कुशल सिंह को विजय की कोई उम्मीद नहीं रही तो उसने आउवा के किले का बार अपने छोटे भाई पृथ्वीसिंह को सौंप दिया और वह सलुम्बर चला गया। १५ दिन के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने आउवा पर अधिकार कर लिया।
अंग्रेजों ने आउवा पर अधिकार करने के बाद पूरे गाँव को बुरी तरह लूटा एवं वहाँ के मंदिरों तथा मूर्तियों को नष्ट कर दिया। आउवा से प्राप्त गोला-बारुद का प्रयोग आउवा के केलि को ध्वस्त करने में किया गया। अंग्रेजों ने आउवा के निवासियों पर बहुत भयंकर अत्याचार किए।

मेवाड़ के अप्रत्यक्ष विद्रोही
इस समय मेवाड़ के सामन्तों में अंग्रेजों तथा महाराणा के विरुद्ध भयंकर असंतोष विद्यमान था इस समय सामंतों में आपसी संघर्ष की आशंका बनी हुई थी। अत: कप्तान शावर्स को मेवाड़ में पोलिटिकल एजेन्ट नियुक्त किया गया। महाराणा ने कहा कि यदि मेवाड़ में विद्रोह भड़कता है, तो सभी सामन्त अंग्रेजों की सहायता के लिए अपनी सेना तैयार रखे। उन्होंने नीमच से भागकर आए हुए अंग्रेजों को अपने यहाँ शरण दी।
जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध घोर असन्तोष की भावना व्याप्त थी। कप्तान शार्वस ने मेवाड़, कोटा तथा बून्दी की राजकीय सेनाओं के सहयोग से नीमच पर अधिकार कर लिया। इसी समय सलुम्बर के रावत केसरी सिंह ने उदयपुर के महाराणा को चेतावनी दी कि यदि आठ दिन में उसके परम्परागत अधिकार को स्वीकार न किया गया तो वह उसके प्रतिद्वन्दी को मेवाड़ का शासक बना देगा।।
सलुम्बर के रावत ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह तथा बनेड़ के विद्रोहियों को अपने यहाँ शरण दी। कोठरिया के रावत जोधसिंह ने भी अपने यहाँ विद्रोहियों को शरण दी।
इसी समय २३ जून, १८५८ ई. को तात्यां टोपे अलीपुर के युद्ध में पराजित हुआ उसके बाद वह भागकर राजपूताने की ओर गया। तात्यां टोपे भीलवाड़ा में भी अंग्रोजों के हाथों पराजित हुआ। उसके बाद वह कोठरिया की तरफ गया। वहां के रावत ने उसकी खाद्य सामग्री की सहायता की। सलुम्बर के रावत ने भी उसे रसद की सहायता दी तथा जनरल म्यूटर ने जब तक गोलीबारी करने की धमकी न दे दी, तब तक उसे रसद की सहायता न दी। 
अन्त में अप्रैल, १८५९ ई. में नरवर के राजपूत, जागीरदार मानसिंह ने तात्यां टोपे के साथ धोखा किया, जिसके कारण तात्यां टोपे को गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार १८५७ के विप्लव के समय यद्यपि मेवाड़ के सामन्तों ने प्रत्यक्षरुप से अंग्रेजों के विरुद्ध कोई विद्रोह नहीं किया था। तथापि विद्रोहियों को शरण तथा सहायता देकर अप्रत्यक्ष रुप से विद्रोह के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कोटा में विद्रोह
मेजर बर्टन ने कोटा की सेना की सहायता से नीमच पर अधिकार कर लिया और इसके बाद वह कोटा लौट आया। यहाँ आने के बाद उसने कोटा के महाराव को दो-चार अधिकारियों पर विद्रोह का आरोप लगाया व महाराव से माँग की कि उन विद्रोहियों को अंग्रेजों को सौंप दिया जाए। इस पर महाराव ने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि वे अधिकार उसके नियंत्रण में नहीं है। इस पर अंग्रेजों ने कोटा के महाराव पर यह आरोप लगाया कि वह विद्रोहियों से मिला हुआ है।
इस बात की सूचना सैनिकों को मिलने पर उन्होंने विद्रोह कर दिया और मे बर्टन को मार डाला। विद्रोहियों ने कोटा के महाराव का महल घेर लिया, जिससे उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी। उसने ए.जी.जी. को पत्र के माध्यम से समस्त घटना की जानकारी भेजी परन्तु पत्र विद्रोहियों के हाथों में पड़ गया। कोटा के महाराव पर दबाव निरन्तर बढ़ता गया। महाराव ने अपने महल की रक्षा हेतु करौली के शासक से सैनिक सहायता प्राप्त की व उनके सहयोग से वह विद्रोहियों को महल से पीछे खदेड़ने में सफल हुए। इसी समय मे जनरल एच. जी. रॉवर्टस ५,५०० सैनिको के साथ २२ मार्च, १८५८ को चम्बल नदी के उत्तरी किनारे पर आ पहुँचा, जिसे देखकर विद्रोही कोटा से भाग खड़े हुए।
विद्रोही कोटा से भागकर गागरौन गए, जहाँ मेवाती भी उनसे आकर मिल गए। महाराव ने अपनी सेना भेजी, जिसने मेवातियों का निर्दयतापूर्वक कत्ल कर दिया। परन्तु विद्रोही वहां से भंवरगढ़ चले गए। वहां की जनता ने उनको रसद की सहायता दी, परन्तु अंग्रेज उनका पीछा करते हुए भंवरगढ़ पहुंच गए। इस पर वहां की जनता ने किसी भी प्रकार की सहायता देने से इन्कार कर दिया।

अन्य राज्यों में विद्रोह
विद्रोह के दौरान भरतपुर की सेना ने भी विद्रोह कर लिया। सम्पूर्ण विद्रोह काल में भरतपुर अशान्त बना रहा तथा वहां की गू तथा मेवाती जनता ने विद्रोह में खुलकर भाग लिया। अलवर में कई नेताओं ने विद्रोह कर दिया और वहां की गू जनता ने भी विद्रोह के दौरान खुलकर अपने असंतोष को व्यक्त किया।
धौलपुर रियासत पर भी विद्रोहियों का काफी दबाव रहा। अक्टूबर १८५७ में ग्वालियर तथा इन्दौर के विद्रोही सैनिक धौलपुर आ पहुंचें। वहां के अनेक सैनिक तथा पदाधिकारी भी उनसे जाकर मिल गए। विद्रोहियों ने धौलपुर के शासक पर दबाव डालकर तोपें प्राप्त की और उनकी सहायता से आगरा पर आक्रमण कर दिया था। अन्त में पटियाला के शासक द्वारा सेना भेजने पर धौलपुर में व्यवस्था स्थापित हो सकी थी।
इसी प्रकार जयपुर में उस्मान खाँ और सादुल्लाखाँ ने विद्रोह कर दिया गया। इसी तरह टोंक में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और नीमच के विद्रोहियों को टोंक आने का निमन्त्रण दिया। इन्होंने टोंक के नवाब का घेरा डालकर उससे बकाया वेतन वसूल किया। इसी प्रकार बीकानेर के शासक ने नाना साहब को सहायता का आश्वासन दिया था। और तात्यां टोपे की सहायता के लिए दस हजार घुड़सवार सैनिक भेजे थे।
इस प्रकार यद्यपि राजस्थान के अधिकांश शासक सम्पूर्ण विद्रोह काल के दौरान अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। तथापि विद्रोहियों के दबाव के कारण उन्हें यत्र-तत्र विद्रोहियों को समर्थन प्रदान किया।

विद्रोहियों की असफलता के कारण
राजस्थान में विद्रोह की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे -
(१) देशी शासक अदूरदर्शी थे, वे अंग्रेजों के भक्त थे, अत: उन्होंने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया।
(२) विद्रोहियों का कोई निश्चित नेता नहीं था इसके अतिरिक्त उनमें एकता तथा संगठन का भी अभाव था।
(३) विद्रोही रणकौशल में अंग्रेजों के समान दक्ष नहीं थे।
विद्रोही के परिणाम
विद्रोह के दौरान देशी शासकों द्वारा अंग्रेजों की सहायता की गयी थी, अत: विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेजों ने उन्हों उपाधियाँ और पुरस्कृत किया। चूँकि विप्लव मुख्य रुप से सामन्तों ने किया था, अत: विप्लव की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने विभिन्न तरीकों के माध्यम से सामन्तों की शक्ति को नष्ट करने का निश्चय किया। विद्रोह काल के दौरान अंग्रेजों को अपनी सेना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में काफी असुविधा का सामना करना पड़ा था। अत: विप्लव के बाद १८६५ ई. में जयपुर और अजमेर होती हुई डीसा की तथा नसीराबाद से चित्तौड़ होकर नीमच जाने वाली सड़क का निर्माण करवाया गया।
विप्लव के बाद राजस्थान के परम्परागत सामाजिक ढांचे में भी परिवर्तन हुआ। विप्लव के दमन के बाद आधुनिक शिक्षा का प्रसार किया गया और समस्त राज्यों में अंग्रेजी नियमों को क्रियान्वित किया गया, जिसके कारण ब्राह्मणों का महत्त्व कम हो गया। इस विद्रोह से जनता में एक नवीन चेतना व जागृति उत्पन्न हुई। इस प्रकार विद्रोह के परिणाम बड़े महत्त्वपूर्ण थे।

विद्रोह का स्वरुप
श्री नाथूराम खड़गावत के अनुसार ""इस विप्लव में साधारण जनता ने भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से भाग लिया था।''

No comments:

Post a Comment

Rajasthan GK Fact Set 06 - "Geographical Location and Extent of the Districts of Rajasthan" (राजस्थान के जिलों की भौगोलिक अवस्थिति एवं विस्तार)

Its sixth blog post with new title and topic- "Geographical Location and Extent of the Districts of Rajasthan" (राजस्थान के ...