राहुल तनेगारिया
ऐतिहासिक स्रोत तथा भारतीय सभ्यता के विकास में राजस्थान का योगदान - कालीबंगा व आहड़ का सांस्कृतिक राजस्थान का योगदान - कालीबंगा वा आहड़ का सांस्कृतिक महत्व
मानव सभ्यता का इतिहास वस्तुत: मानव के विकास का इतिहास है। इस दिशा में जो महत्वपूर्ण खोज हुई हैं, उनके अनुसार ऐसा अनुमान किया जाता है कि लगभग अस्सी करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन के चिह्म प्रकट होने लगे थे। मनुष्य अपने प्रारम्भिक जीवन में पशुवत् था। इस पशुवत् जीवन से ऊपर उठने के लिए उसने हजारों वर्ष लिए। मनुष्य के हजारों वर्ष के इस विकास का लिपिबद्ध और क्रमागत प्रमाणिक इतिहास प्राप्त नहीं हैं। इसलिए इस युग के इतिहासकारों ने प्रागैतिहासिक युग की संज्ञा दी है।
प्रागैतिहासिक युग के मानव ने अपने जीवन-यापन व जीवन रक्षा हेतु जिन पदार्थों से बने हथियार व औज़ारों व अन्य उपरकरणों का प्रयोग किया था और विश्व व भारत के विभिन्न भागों में अवशेष के रुप में अथवा उत्खन्न के फलस्वरुप उपलब्ध हुए हैं। उनके आधार पर प्रागैतिहासिक काल को चार क्रमिक सोपानों में विभक्त किया जाता है :
(क) आदिम पाषाणकाल; | |
(ख) पूर्व पाषाणकाल; | |
(ग) उत्तर पाषाणकाल; | |
(घ) धातुकाल; धातुकाल पुन: तीन भागों में बाटें गये है : | |
| (घ.१) ताम्र युग; |
| (घ.२) कांस्य युग; |
| (घ.३) लौह युग; |
राजस्थान के प्रागैतिहासिक काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं -
प्रागैतिहासिक राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोत एवं विशेषताएँ :
राजस्थान में प्रागैतिहासिक प्रस्तर-धातु युग
सरस्वती तट पर कालीबंगा - राजस्थान के गंगानगर ज़िले में स्थित कालीबंगा स्थान पर उखन्न द्वारा (१९६१ ई. के मध्य किए गए) २६ फ़िट ऊँची पश्चिमी थेड़ी (टीले) से प्राप्त अवशेषों से विदित होता है कि लगभग ४५०० वर्ष पूर्व यहाँ सरस्वती नदी के किनारे हड़प्पा कालीन सभ्यता फल-फूल रही थी। कालीबंगा गंगानगर ज़िले में सूरतगढ़ के निकट स्थित है। यह स्थान प्राचीन काल की नदी सरस्वती (जो कालांतर में सूख कर लुप्त हो गई थी) के तट पर स्थित था। यह नदी अब घग्घर नदी के रुप में है। सतलज उत्तरी राजस्थान में समाहित होती थी। सूरतगढ़ के निकट नहर-भादरा क्षेत्र में सरस्वती व हृषद्वती का संगम स्थल था। स्वंय सिंधु नदी अपनी विशालता के कारण वर्षा ॠतु में समुद्र जैसा रुप धारण कर लेती थी जो उसके नामकरण से स्पष्ट है। हमारे देश भारत में "र्तृधर सभ्यता" का मूलत: उद्भव विकास एवं प्रसार "सप्तसिन्धव" प्रदेश में हुआ तथा सरस्वती उपत्यका का उसमें विशिष्ट योगदान है। सरस्वती उपत्यका (घाटी) सरस्वती एवं हृषद्वती के मध्य स्थित "ब्रह्मवर्त" का पवित्र प्रदेश था जो मनु के अनुसार "देवनिर्मित" था। धनधान्य से परिपूर्ण इस क्षेत्र में वैदिक ॠचाओं का उद्बोधन भी हुआ। सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदियों में उत्तम थी तथा गिरि से समुद्र में प्रवेश करती थी। ॠग्वेद (सप्तम मण्डल, २/९५) में कहा गया है-"एकाचतत् सरस्वती नदी नाम शुचिर्यतौ। गिरभ्य: आसमुद्रात।।" सतलज उत्तरी राजस्थान में सरस्वती में समाहित होती थी। सी.एप. ओल्डन ( C.F. OLDEN ) ने ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों के आधार पर बताया कि घग्घर हकरा नदी के घाट पर ॠग्वेद में बहने वाली नदी सरस्वती 'हृषद्वती' थी। तब सतलज व यमुना नदियाँ अपने वर्तमान पाटों में प्रवाहित न होकर घग्घर व हसरा के पाटों में बहती थीं। महाभारत काल तक सरस्वती लुप्त हो चुकी थी और १३वीं शती तक सतलज, व्यास में मिल गई थी। पानी की मात्र कम होने से सरस्वती रेतीले भाग में सूख गई थी। ओल्डन महोदय के अनुसार सतलज और यमुना के बीच कई छोटी-बड़ी नदियाँ निकलती हैं। इनमें चौतंग, मारकंडा, सरस्वती आदि थी। ये नदियाँ आज भी वर्षा ॠतु में प्रवाहित होती हैं। राजस्थान के निकट ये नदियाँ निकल कर एक बड़ी नदी घग्घर का रुप ले लेती हैं। आग चलकर यह नदी पाकिस्तान में हकरा, वाहिद, नारा नामों से जानी जाती है। ये नदियाँ आज सूखी हुई हैं - किन्तु इनका मार्ग राजस्थान से लेकर करांची और पूर्व कच्छ की खाड़ी तक देखा जा सकता है। वाकणकर महाशय के अनुसार सरस्वती नदी के तट पर २०० से अधिक नगर बसे थे, जो हड़प्पाकालीन हैं। इस कारण इसे 'सिंधुघाटी की सभ्यता' के स्थान पर 'सरस्वती नदी की सभ्यता' कहना चाहिए। मूलत: घग्घर-हकरा ही प्राचीन सरस्वती नदी थी जो सतलज और यमुना के संयुक्त गुजरात तरु बहती थी जिसका पाट (चौड़ाई) ब्रह्मपुत्र नदी से बढ़कर ८ कि.मी. था। वाकणकर के अनुसार सरस्वती नदी २ लाख ५० हजार वर्ष पूर्व नागौर, लूनासर, आसियाँ, डीडवाना होते हुए लूणी से मिलती थी जहाँ से वह पूर्व में कच्छ का रण नानूरण जल सरोवर होकर लोथल के निकट संभात की काढ़ी में गिरती थी, किंतु ४०,००० वर्ष पूर्व पहले भूचाल आया जिसके कारण सरस्वती नदी मार्ग परिवर्तन कर घग्घर नदी के मार्ग से होते हुए हनुमानगढ़ और सूरतगढ़ के बहावलपुर क्षेत्र में सिंधु नदी के समानान्तर बहती हुई कच्छ के मैदान में समुद्र से मिल जाती थी। महाभारत काल में कौरव-पाण्डव युद्ध इसी के तट पर लड़ा गया। इसी काल में सरस्वती के विलुप्त होने पर यमुना गंगा में मिलने लगी। कालीबंगा से प्राप्त प्रागैतिहासिक हड़प्पा (सिंधु घाटी) सभ्यता के स्रोत के रुप में अवशेष :
(घ) तोल के बाट पत्थर से बने तोलने के बाट का उपयोग करना मानव सीख गया था। (च) बर्तन मिट्टी के विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े बर्तन भी प्राप्त हुए हैं जिन पर चित्रांकन भी किया हुआ है। यह प्रकट करता है कि बर्तन बनाने हेतु 'चारु' का प्रयोग होने लगा था तथा चित्रांकन से कलात्मक प्रवृत्ति व्यक्त करता है। (छ) आभूषण अनेक प्रकार के स्री व पुरुषों द्वारा प्रयुक्त होने वाले काँच, सीप, शंख, घोंघों आदि से निर्मित आभूषण भी मिलें हैं जैसे कंगन, चूड़ियाँ आदि। (ज) नगर नियोजन मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा में भी सूर्य से तपी हुई ईटों से बने मकान, दरवाज़े, चौड़ी सड़कें, कुएँ, नालियाँ आदि पूर्व योजना के अनुसार निर्मित हैं जो तत्कालीन मानव की नगर-नियोजन, सफ़ाई-व्यवस्था, पेयजल व्यवस्था आदि पर प्रकाश डालते हैं। (झ) कृषि-कार्य संबंधी अवशेष कालीबंगा से प्राप्त हल से अंकित रेखाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि यहाँ का मानव कृषि कार्य भी करता था। इसकी पुष्टि बैल व अन्य पालतू पशुओं की मूर्तियों से भी होती हैं। बैल व बारहसिंघ की अस्थियों भी प्राप्त हुई हैं। बैलगाड़ी के खिलौने भी मिले हैं। (ट) खिलौने धातु व मिट्टी के खिलौने भी मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति यहाँ से प्राप्त हुए हैं जो बच्चों के मनोरंजन के प्रति आकर्षण प्रकट करते हैं। (ठ) धर्म संबंधी अवशेष मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा से मातृदेवी की मूर्ति नहीं मिली है। इसके स्थान पर आयाताकार वर्तुलाकार व अंडाकार अग्निवेदियाँ तथा बैल, बारसिंघे की हड्डियाँ यह प्रकट करती है कि यहाँ का मानव यज्ञ में पशु-बलि भी देता था। (ड) दुर्ग (किला) सिंधु घाटी सभ्यता के अन्य केन्द्रो से भिन्न कालीबंगा में एक विशाल दुर्ग के अवशेष भी मिले हैं जो यहाँ के मानव द्वारा अपनाए गए सुरक्षात्मक उपायों का प्रमाण है। उपर्युक्त अवशेषों के स्रोतों के रुप में कालीबंगा व सिंधु-घाटी सभ्यता में अपना विशिष्ट स्थान है। कुछ पुरातत्वेत्ता तो सरस्वती तट पर बसे होने के कारण कालीबंगा सभ्यता को 'सरस्वती घाटी सभ्यता' कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि यहाँ का मानव प्रागैतिहासिक काल में हड़प्पा सभ्यता से भी कई दृष्टि से उन्नत था। खेती करने का ज्ञान होना, दुर्ग बना कर सुरक्षा करना, यज्ञ करना आदि इसी उन्नत दशा के सूचक हैं। वस्तुत: कालीबंगा का प्रागैतिहासिक सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में यथेष्ट योगदान रहा है। आहड़ का सांस्कृतिक महत्व आहड़कालीन संस्कृति की स्थिति राजस्थान में प्राचीन मेवाड़ क्षेत्र का पुरातत्व की दृष्टि से अलग ही महत्व है। इस क्षेत्र की नदियों के तटों पर पाषाण कालीन (प्रस्तर युग) संस्कृतियों के अवशेष के अतिरिक्त अनेक स्थानों पर आहड़कालीन संस्कृतियों के अवशेष भी पाए गए हैं जिनकी पृथक विशेषता है। प्राचीन मेवाड़ में आहड़ (उदयपुर) के समान सभ्यता का विकास मुख्यत: बनास और उसकी सहायक नदियों आहड़, बाग, पिण्ड, बेड़च, गम्भीरी, कोठारी, मानसी, खारी व अन्य छोटी नदियों के किनारे हुआ है इसलिए पुरातत्ववेत्ता इस सभ्यता को बनास घाटी की सभ्यता के नाम से भी पुकारते हैं। आहड़ को प्राचीन काल में 'ताम्रवती' (ताँबावती) नगरी के नाम से भी पुकारा जाता रहा है। इसका कारण यहाँ हुए ताम्र उपकरणों का विकास ही है। अन्य स्थानों पर भी जहाँ ताँबा पाया गया है। इस संस्कृति के अवशेष मिल हैं। जिन स्थानों पर इस सभ्यता के अवशेष मिले हैं वे 'धूल कोट' के रुप में थे जिन्होंने लम्बे समय तक सभ्यता के अवशेषों को अपने गर्भ में सुरक्षित सँजोए रहता है। पुरातत्ववेत्ता हंसमुख धीरजलाल सांकलिया महोदय के अनुसार तीन ओर से अरावली पर्वतमालाओं से राजस्थान का यह भाग बनास और उसकी सहायक नदियों तथा नालों के जल से पूरित वन-सम्पदा एवं खनिज सम्पदा से भरपूर, उत्तम वर्षा व संतुलित जलवायु से युक्त होने के कारण प्राचीनकाल से ही प्रागैतिहासिक मानव का आवास-स्थल रहा है। उत्खन्न कार्य आहड़ में योजनाबद्ध रुप से १९५२-१९५६ के मध्य राजस्थान के राजकीय संग्रहालय एवं पुरातत्व विभाग के तत्कालीन अधीरक्षक रत्नचंद अग्रवाल द्वारा करवाया गया था। आहड़ सभ्यता के केन्द्र व काल प्रारम्भ में इस स्थान पर पाए गए अवशेषों से आधार पर कार्बन - १४ को आधार मानते हुए इस सभ्यता का काल ईसा से पूर्व १२०० से १८०० वर्ष माना गया। १९५६ के बाद भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने बनास तथा उसकी सहायक नदियों के किनारे सर्वेक्षण कार्य प्रारम्भ किया जिसके फलस्वरुप उदयपुर, चितौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर तथा अन्य ज़िलों में भी लगभग ४० से अधिक स्थानों पर आहड़ के समकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए। १९६० में बी.बी. लाल ने उदयपुर के दक्षिणोत्तर में ७२ कि.मी. दूर बनास के किनारे 'गिलूंड' में आहड़ समकालीन संस्कृति के अवशेषों को खोज निकाला। बनास धारी में आहड़कालीन संस्कृति के अवशेषों के एक के बाद एक निरन्तर मिलते रहने से प्रेरित होकर १९६८ में सांगलिया महोदय के नेतृत्व में विशाल पैमाने पर सामूहिक खोज का आयोजन किया गया। इस खोज हल में राजस्थान पुरातत्व विभाग के तत्कालीन निरक्षक एस.पी. श्रीवास्तव, आॅस्ट्रेलिया के मेलबोर्न विश्वविद्यालय के विलियम कुलीसेन, काजी, निक्सन तथा राजस्थान पुरातत्व विभाग के चक्रवर्ती विजयकुमार और सम्मिलित थे। इस दल ने अपने शोध-सर्वेक्षण से सिद्ध किया कि आहड़ कालीन संस्कृति के अवशेष राजस्थान के उदयपुर, चितौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर, टौंक और जयपुर ज़िले में तो उपलब्ध है ही, साथ ही इसी के आधार पर राजस्थान के पुरातत्व विभाग के कोटपूतली, नीम का थाना व गणेश्वर में उत्खनन कार्य कराया जहाँ O.C.P.B.R.P . और N.B.P. चित्रित लाल व काले मटभाण्डों, सफ़ेद माँडने व चित्रित ग्रेवियर प्राप्त हुए हैं। १९७९ चितौड़गढ़ राजकीय संग्रहालय के परीक्षक कन्हैयालाल मीणा ने पुन: बनास व उसकी सहायक नदियों के किनारे पर आहड़कालीन संस्कृति का शोध-सर्वेक्षण किया जिससे इन शोध-केन्द्रों की संख्या लगभग ६० हो गई है। मीणा को सर्वेक्षण में चित्तौड़गढ़ के 'पिण्ड' ग्राम में 'ताँबे' की प्राचीन कुल्हाड़ी मिली। भीलवाड़ा में भी सर्वेक्षण किया गया। इन केन्द्रों से विभिन्न प्रकार के अनेक अवशेष उपलब्ध हुए है।
पहले स्तर में कुछ मिट्टी की दीवारें मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तथा पत्थर के ढेर प्राप्त हुए हैं। दूसरे स्तर की बस्ती से जो प्रथम स्तर पर ही बसी है, कुछ कूट कर तैयार की गई है दीवारें और मिट्टी के बर्तन के टुकड़े मिले हैं। तीसरी बस्ती में कुछ चित्रित बर्तन और उनका घरों में प्रयोग होना प्रमाणित होता है। चौथी बस्ती के स्तर में एक बर्तन से दो ताँबे की कुल्हाड़ियाँ मिली हैं। इस प्रकार इन स्तरों पर उत्तरोत्तर चार और बस्तियों के स्तर मिले हैं। जिनमें मकान बनाने की पद्धति, बर्तन बनाने की विधि आदि में परिवर्तन दिखाई देता है। ये सभी स्तर एक-दूसरे स्तर पर बनते और बिगड़ते गए जो हमें आहड़ की ऐतिहासिकता समझने में बड़े सहायक हैं। ये समूची बस्तियाँ 'आहड़-नदी की सभ्यता' कही जाती हैं। विभिन्न बस्तियों के अवशेष आहड़ की खुदाई में कई घरों की स्थिति का पता चला है। सबसे प्रथम बस्ती नदी के ऊपरी भाग की भूमि पर बसी थी जिस पर उत्तरोत्तर बस्तियाँ बनती चली गई। यहाँ के के मुलायम काले पत्थरों से मकान बनाए गए थे। नदी के तट सेलाई गई मिट्टी से मकानों को बनाया जाता था। यहाँ बड़े कमरों की लम्बाई - चौड़ाई ३३ न् २० फ़िट तक चौड़ी होती थी। इनकी छतें बाँसे से ढकी जाती थीं। मकानों के फ़र्श को काली मिट्टी के साथ नदी का बालू को मिलाकर बनाया जाता था। कुछ मकानों में २ या ३ चूहे और एक मकान में तो ६ चूहों की संख्या भी देखी गई। इससे पता चलता है कि आहड़ में बड़े भाण्डें भी गड़े हुए मिले हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में 'गोरी' या 'कोठे' कहा जाता है। इस संख्या से प्राचीन आहड़ की समृद्धि भी प्रमाणित होती है। आहड़ के द्वितीय काल की खुदाई में ताँबे की मूद्राएँ और तीन मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ मुद्राएँ अस्पष्ट हैं किंतु एक मुद्रा में त्रिशूल खुदा हुआ है और दूसरी में खड़ा हुआ 'अपोलो' है जिसके हाथों में तीर तथा तरकस हैं। इस मुद्रा के किनारे यूनानी भाषा में कुछ लिखा हुआ है जिससे इसका काल दूसरी सदी ईसा पूर्व आँका जाता है। कई मकानों की रक्षार्थ स्फटिक पत्थरों के बड़े टुकड़े काम में लाए जाते थे और उन्हीं से पत्थर के औज़ार बनाए जाते थे। यहाँ की सभ्यता के प्रथम चरण से सम्बन्धित प्रस्तर के छीलने, छेद करने तथा काटने के औज़ार पाए कुछ ऐसे औज़ार चतुष्कोण, गोल व बेडौल आकृति के मिले हैं जो आकार में छोटे हैं किन्तु जिनके एक या दो किनारे बड़े तेज दिखाई देते हैं। औज़ार वा आभूषण चारों ओर उभरे तथा पैने किनारों के उपकरण भी यहाँ मिले हैं जो चमड़े या हड्डी छीलने के प्रयोग में लाए जाते होगें। इसके अतिरिक्त यहाँ से प्राप्त अवशेषों में पत्थरों के गोले शिलाएँ, गदाएँ, ओखलियाँ आदि भी मिले हैं। मूल्यवान पत्थरों जैसे गोमेद, स्फटिक आदि से आहड़ निवासी गोल मणियाँ बनाते थे। ऐसी मणियों के साथ काँच, पक्की-मिट्टी, सीप और हड्डी के गोलाकार छेद वाले अंडे भी लाए जाते थे। इनको सुरक्षित करने हेतु मिट्टी के बर्तनों या टोकरियों का प्रयोग किया जाता था। इनका आभूषण बनाने में उपयोग किया जाता था तथा ताबीज़ की तरह लटकाने के लिए किया जाता था। इनके ऊपर सजावट का काम भी किया जाता था। आधार में ये गोल, चपटे, चतुष्कोण व षट्कोण होते थे। ये अवशेष आहड़ सभ्यता के दूसरे चरण की ज्ञात होती है। मूर्तियाँ व पूजा-सामग्री अन्य अवशेषों में चमड़े के टुकड़े, मिट्टी के पूजा-पात्र। चूड़ियाँ तथा खिलौने हैं। पूजा-पात्रों के किनारे ऊँचे व नीचे होने से ज्ञात होता है कि इनमें दीपक रखने की व्यवस्था की जाती थी। खिलौनों में बैल, हाथी, चक्र आदि प्रमुख है। ये अवशेष आहड़-सभ्यता से समृद्ध काल १८००ई. से पू. से १२०० ई.पू. से संबद्ध है। इस युग का मानव कच्ची मिट्टी के ढलवाँ छतों वाले मकान बना कर रहता था तथा वह मांसाहारी था किंतु आगे चलकर वह गेहूँ का आहार करने लगा था। इस काल में लौह धातु का प्रयोग किया जाने लगा था। कृषि व बर्तन बनाने की कला आहड़ सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे। यहाँ से मिलने वाले बड़े-बड़े भाण्डे तथा अन्न पीसने के पत्थर प्रमाणित करते हैं कि ये लोग अन्न उत्पादन करते थे और उसको पका कर खाते थे। एक बड़ कमरे में जो बड़ी-बड़ी भट्टियाँ मिली हैं वह सामूहिक भोज की पुष्टि करती हैं। इस भाग में वर्षा अधिक होने और नदी पास में होने से सिंचाई की सुविधा यह सिद्ध करती है कि वहाँ भोजन सामग्री प्रभूत मात्रा में प्राप्त रही होगी। आहड़ के निवासियों को बर्तन बनाने की कला आती थी। यहाँ से मिट्टी की कटोरियाँ, रकबियाँ, तश्तरियाँ, प्याले, मटके, कलश आदि बड़ी संख्या में मिलें हैं। साधारणतया इन बर्तनों को चाक से बनाते थे जिन पर चित्रांकन उभरी हुई मिट्टी की रेखा से किया जाता था और उसे 'ग्लेज' करके चमकीला बना दिया जाता था। बैठक वाली तश्तरियाँ और पूजा में काम आने वाली धूपदानियाँ ईरानियन शैली की बनती थी जिनमें हमें आहड़ियों का संबंध ईरानी गतिविधि से होने की सम्भावना प्रकट होती है। मृतक का संस्कार मृतक संस्कार के संबंध में आहड़ के उत्खन्न के ऊपरी स्तर से पता चलता है कि पहली व दूसरी शताब्दी में मृतक को गाड़ा जाता था। मृतक के अस्थि पंजरों से ज्ञात होता है कि उसे आभूषणों सहित दफ़नाया जाता था। उसका सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण में रखे जाते थे। उपर्युक्त अवशेष रुपी स्रोतों से प्रागैतिहासिक काल की सभ्यता एवं संस्कृति की भाँति आहड़ संस्कृति भी प्रागैतिहासिक कालीन सांस्कृतिक विकास की महत्वपूर्ण कड़ियाँ सिद्ध होती हैं जिनसे अनेक नवीन जानकारियाँ मिलती हैं। |
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