राहुल तोन्गारिया
धर्म सदैव भारतीयों की आत्मा का स्वरुप रहा है। राजस्थान प्रदेश भी इस क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहा है। यहाँ के राजपूत शासक अपने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने को तैयार रहें हैं। यहाँ के निवासी सूरमा एवं अपने धर्म पर मर मिटने वाले राजाओं के पद चिन्हों पर चलते रहे हैं। धर्म ने यहाँ के विभिन्न सम्प्रदाय एवं वर्गों के लोगों को एकता के सूत्र में बाँध रखा है। प्रार्मभ में यहाँ भी वैदिक धर्म ही प्रचलित था। घोसुण्डी अभिलेख से यह स्पष्ट होता है कि दूसरी शताब्दी ई० पू० में गज वंश के सर्वतात ने यहाँ अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया था।
ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने निरन्तर उत्तर भारत पर आकर्मण किये, परन्तु राजस्थान के लोग वैदिक धर्म पर ही आचरण करते रहे। डॉ० जे० एन० आसोपा ने उस वैदिक धर्म को ही पौराणिक स्मात धर्म की संज्ञा दी थी। इसका मतलब यह है कि राजस्थान के लोग विभिन्न देवी - देवताओं की पूजा करते थे और वेदों में वर्णित कर्मकाण्डों को सम्पादित करवाते थे। यहाँ के लोग वर्णाश्रम में विश्वास करते थे। पुराणों में इसके प्रमाण प्राप्त होते हैं। पुराणों को लोक - परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है और उनसे वैदिक काल से लेकर राजपूत काल के प्रारम्भ तक की जानकारी प्राप्त होती है। यह पौराणिक स्मात धर्म राजस्थान में १५००ई० तक चलता रहा।
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