स्व. डॉ. जबरनाथ पुरोहित
सामाजिक, राजनीतिक, कर्मण्यवादी जयनारायण व्यास अपने युग की जीवित गाथा थे। युग का स्पन्दन उनकी आत्मा का स्वर बनकर उनकी कविताओं में, उनके गीतों में, उनके उपन्यास में, उनके नाटकों में, उनकी कहानियों में मुखर हुआ। व्यास जी सही अर्थ में सामाजिक पुनर्जागरण एवं राष्ट्रीय भावनाओं के कवि थे। वे समाज सुधार एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित कवि, लेखक, पत्र्कार थे। सत्यदेव विद्यालंकार द्वारा सम्पादित ‘धुन के धनी’ (1964) में व्यास जी की संघर्ष गाथा का उल्लेख करते हुए लिखते हैं -
‘वस्तुतः व्यास जी को अपने राजनीतिक जीवन में एक साथ मुख्यतः पाँच मोर्चों पर सक्रिय रहना पडा। पहला मोर्चा था सामन्ती सत्ता का, जिसमें जागीरदार, उनके छुटभैये और देशी नरेश शामिल थे, दूसरा था उन निहित स्वार्थों का जो देशी राज्यों में अपनी जडें जमाए हुए थे, तीसरे अंग्रेजी सरकार के उस पॉलिटिकल विभाग का जो सामंतशाही का अंधा पोषक था, चौथा उन प्रतिक्रियावादियों का जो सामन्तशाही के हस्तक थे और पाँचवा था उन नेताओं का जो देशी राज्यों में किसी प्रकार के आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे। इस दृष्टि से उनकी स्थिति उस वीर अभिमन्यु के समान थी जिनको चक्रव्यूह भेदने के लिए कौरव दल के समस्त महारथियों का एकाकी सामना करना पडा था।’ (धुन के धनी, पृष्ठ 1 व 29)
विश्व इतिहास का अध्ययन यह प्रमाणित करता है कि क्रान्ति दो प्रकार सम्भव है। एक क्रान्तिकार वे होते हैं जो विचार देते हैं, विचार कभी मरते नहीं, वे सदैव किसी न किसी रूप में समाज में जीवित रहते हैं और दूसरे क्रान्तिकारी वे होते हैं जो अवनि पर पाँव टिकाये खडे रहते हैं, सामान्य जीवन से यात्र आरम्भ करते हैं तथा अपने तन मन को अनुभव की आग में इसलिए तपाते हैं कि वे ऊर्जा प्राप्त कर सकें, शक्ति संचित कर सकें और उस शक्ति का उपयोग सामाजिक परिवर्तन की दिशा में अनवरत अग्रसर होने में हो सके। व्यास जी दोनों ही प्रकार के क्रान्तिकारियों का सुन्दर समन्वय थे।
व्यास जी का युग वह युग था जब समाज सभी दृष्टियों से चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या नैतिक - उल्टी दिशा में ही चला जा रहा था। युग के भाव एवं संवेदनाएँ ऐसे आकार लेने लगे थे जिन्हें अमानवीय, अनैतिक कहा जा सकता है। ऐसे युग में व्यास जी सीना तान कर चट्टान की भाँति, उस अमानुषिक, अनैतिक शोषण प्रवाह की गति को नदी के द्वीप की तरह अवरुद्ध करने खडे हो गये। उन्होंने अपने साहित्य को शस्त्र् बनाकर शोषण, दमन एवं अमानवीयता के विरुद्ध युद्ध आरम्भ कर दिया, उनका हृदय उद्वेलित हुआ और वे गा उठे -
पाछौ मत आईजे बेटा राड सूं
मत दूध लजाइजे ।
सुण रे बेटा सावतोस तूं, सुण मायड री बात
सूरवीर कुल धरम री है, लाज अब थारे हाथ
मत दूध लजाइजे ।
पाछौ मत आईजे बेटा राड सूं ।
व्यास जी का यह गीत ऐसा लगता है, औरों के लिये होने से अधिक स्वयं के लिए ही था। इस गीत के माध्यम से वे आत्मालाप करते दिखाई देते हैं। ये पंक्तियाँ व्यास जी को प्रेरित करती रहीं, उन्हें साहस देती रहीं, उनका दिशा-निर्देश करती रहीं और वे सभी मोर्चों पर खम्भ ठोक कर खडे हो गये।
व्यास जी आसक्ति, विरक्ति, आस्तिकता, नास्तिकता के तथा शोषण दमन जैसे अमानवीय संघर्षों को झेलने वाले ऐसे रचनाकार थे जो मुक्ति की, मानवता की, विशाल विवरणिका को ड्राफ्ट करने में रत रहे। एक सचेत युगद्रष्टा एवं युगचारण के रूप में सामाजिक विद्रूपताओं एवं राजनीतिक दमनचक्रों के अनेक रंगों को अपनी कविताओं, गीतों व अन्य रचनाओं में रचाते रहे, बसाते रहे। उनके प्रामाणिक अनुभव जो किसी और के नहीं, किसी और के जैसे भी नहीं, अपने स्वयं के भोगे हुए यथार्थ हैं। उनके गीत, कविताएँ जन-जन को सहज संप्रेषित होती रहीं, जिसके परिणामस्वरूप जन-जन में, समाज में परिवर्तन लाने की भावना तीव्र से तीव्रतर होती गयी।
राइनर माकिया किल के पत्र् युवाकवि के नाम में राइनर के ये विचार व्यास जी की रचनाओं के औचित्य को प्रमाणित करते हैं -
‘‘अपने में लौट आओ। उस कारण (केन्द्र) को ढूँढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जानने की कोशिश करो कि क्या इस बाह्यता ने अपनी जडें तुम्हारे भीतर फैला ली हैं ? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाये तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे ? कविता अनिवार्यता से उपजती है। कविता का केन्द्र या कारण है, व्यक्ति का अपना जीवन अनुभव, जिनसे वह खुद रूबरू होता है।’’
इस कसौटी पर व्यास जी की कविताएँ खरी उतरती हैं। सच्चा साहित्यकार तो वह है जो स्वयं को देखता है, समाज को देखता है, अपने आसपास इधर-उधर जो घटता है उससे स्वयं को जोडता है। व्यास जी ने रियासती जनता को सामंतशाही से मुक्त करवाने का बीडा तो उठाया ही था, साथ ही उनका चिन्तन यह भी था कि जब तक जन-जागृति नहीं होगी, जब तक सामाजिक चेतना विकसित नहीं होगी, तब तक राजनीतिक स्वतंत्र्ता-प्राप्ति में बराबर कठिनाई आती ही रहेगी। यही सोचकर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर निर्मम प्रहार करना आरम्भ कर दिया। आपकी ‘घरगीता’, ‘घरवालियाँ’, ‘सुलक्षणा नारी’, ‘रासौ’, ‘टका पुराण’ आदि अनेक रचनाएँ इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं। सामाजिक कुरीतियों के जितने भी रूप उस समय प्रचलित थे उन सभी पर व्यास जी ने अपनी व्यंग्यात्मक शैली में निर्मम प्रहार किये हैं। इन रचनाओं की एक बहुत बडी उपलब्धि यह रही कि तत्कालीन रूढ-प्रेमी समाज की जडें हिलने लगीं और पितामहों और पिताओं को अपने पौत्रें एवं पुत्रें का विरोध सहन करना पडा।
डॉ. नंदकिशोर आचार्य की इस मान्यता के अनुसार कि ‘‘अपनी धारणाओं को सविनय दृढता के साथ रखना भी प्रहार की एक कला है।’’ यदि व्यास जी की रचनाओं को इस दृष्टि से देखा जाय तो वे निश्चित रूप से कला के नमूनों के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं। व्यास जी की जो मान्यताएँ रहीं, जो धारणाएँ रहीं, जो उनके अनुभव रहे, उन्होंने सहज सम्प्रेषण भाषा में उनको अभिव्यक्त किया।
व्यास जी की रचनाएँ उस अमानवीय होते जा रहे माहौल में मनुष्य को जिलाये रखने के संवेदनात्मक संघर्ष में अपनी भूमिका बराबर तलाशती रहीं तथा तत्कालीन समाज तथा सम्पूर्ण राष्ट्र पर जो राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आक्रमण हो रहे थे, उनका रेशा-रेशा खोलती दृष्टिगत होती है।
मोहनदास करमचन्द गाँधी 1905 में अफ्रीका से भारत आए। 1906 में कलकत्ता में लोकमान्य तिलक ने नारा दिया, ‘‘स्वतंत्र्ता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’’ बीसवीं सदी के आरम्भ में सम्पूर्ण भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध आग सुलगने लगी। देश के कवियों, गीतकारों, साहित्यकारों ने इस आग में हवा देने का कार्य किया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सोहनलाल द्विवेदी, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ के साथ राजस्थान में व्यास जी की रचनाओं ने भी स्वतंत्र्ता के लिए किए जा रहे संघर्ष को प्रेरणा दी। ‘विजय मान दे’, ‘नहीं रहेगी सत्ता तेरी’, ‘क्रान्ति गीत’, ‘मत दूध लजाइजे’ आदि कविताएँ रियासती जनता की मुक्ति के लिए आन्दोलन कर रहे स्वतंत्र्ता सेनानियों के अधरों पर रहती थीं। राष्ट्र-मुक्ति और समाज-सुधार के इस संघर्ष में जहाँ स्वतंत्र्ता सेनानिय का संघर्षरत शूरों का महत्त्वपूर्ण योग रहा, वहाँ साहित्यकारों की भूमिका वंदनीय रही। शूरों और साहित्यकारों का यह भावात्मक समर्पण राष्ट्र-मुक्ति और राष्ट्र-उन्नयन का कारण बना। व्यास जी के व्यक्तित्व में शूर और साहित्यकार दोनों ही स्पष्ट रूप से प्रतिलक्षित होते थे। व्यास जी के साहित्य ने राष्ट्रीय आन्दोलन में संजीवन का कार्य किया, नई चेतना का संचार किया। हर कोई गा उठा -
तेरे पद शीश धरें
अर्पण सर्वस्व करें
तेरे हित जिये मरें
विजय मान दे।’’
राजनीतिक इतिहास विश्वासघातों के प्रसंगों से घिरा पडा है। इतिहास साक्षी है कि जिस किसी ने भी धरती का पाप धोने का प्रयत्न किया है तो दुनिया ने कभी उस पर अंगुली उठायी है तो कभी उसके रास्ते में रोडे अटकाये हैं और यहाँ तक कि उसके अस्तित्व पर ही निर्मम और प्राणघातक हमले किये हैं।
जब व्यास जी समाज सुधारक और राष्ट्रीयता का ध्वज लेकर अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये अग्रसर हुए तो वे लोग जिनको उन्होंने दिशा दी, आगे बढाया, उनका ही रास्ता रोककर खडे हो गये। सारा ही महाभारत वे अपने मन पर झेलते रहे। हर अँधेरा अलग-अलग ढंग से उनके मन को तोडता रहा। वे टूटते रहे - जुडते रहे, फिर टूटते - फिर जुडते, पर उनके पग पथ पर रुके तो नहीं। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि समय के अँधेरों-उजालों ने उनकी नजरों को इतना तेज अवश्य कर दिया कि वे स्वयं को भी पहचान सके और औरों को भी। व्यास जी को अनेक बार झटके लगे, बिजली के नहीं, भावनाओं के। कृतज्ञता के साथ कुण्ठाओं से भी उनकी झोली भरी जाती रही, और इस स्थिति को व्यास जी ने इन पंक्तियों में चित्र्ति किया -
कैद हुआ मीठे फल खाकर
पंछी फँसा लोभ में आकर
अब क्यों उलझ रहा चिल्लाकर
बिन यत्न निस्तार नहीं है
यह तेरा संसार नहीं है ।
भीतर बंधन मय जीवन है
बाहर शुद्ध वायु का वन है
निर्बल हृदय भरोसा मन है
अन्तर्द्वन्द्व अपार यही है
यह तेरा संसार नहीं है ।
कविता के सम्बन्ध में निर्मल वर्मा का यह कथन सर्वांश में सत्य है कि -
‘‘कविता में समाज, सौन्दर्य, जीवन जगत् कविता की शर्त पर ही आने चाहिए। कविता की पूरी बनावट के भीतर से एक विशेष प्रकार की अर्थमयी झंकृति निरन्तर उत्पन्न हो। देखना यह चाहिए कि कविता में कविता कहाँ है ?’’ यदि इस कसौटी पर व्यास जी की कविताओं को परखा जाये तो उनकी कुछ ही कविताओं को कविताओं की श्रेणी में रखा जा सकेगा। मेरे विचार से व्यास जी की रचनाओं के लिये यह परिभाषा शायद उनकी रचनाओं के साथ न्याय नहीं कर सके। यदि बहुत स्पष्ट रूप से कहा जाये तो व्यास जी ने जो कुछ भी लिखा उसका सहज सम्प्रेषित होना उनकी प्राथमिक आवश्यकता थी। सम्प्रेषण में दो बुनियादी आवश्यकताएँ हैं - शब्द और संवेदना। यही कारण था कि वे सीधे सादे शब्दों में अपनी बात कविता के माध्यम से कह देते थे। उन्हें शायद इस बात की अधिक चिन्ता नहीं थी कि उन पर सपाट बयानी का आरोप लग सकता है। इस सम्बन्ध में कवि धूमिल का यह मत व्यास जी की कविता की सार्थकता प्रकाशित करता है -
एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।
बंगला के महान् लेखक शरद बाबू पर विष्णु प्रभाकर की पुस्तक ‘आवारा मसीहा’ में जिस घटना का उल्लेख हुआ है, उसको यहाँ उद्धृत करना उपयुक्त होगा -
‘‘एक बार शरद बाबू को युनिवर्सिटी में आमंत्र्ति किया गया। वहाँ उनसे एक छात्र् ने प्रश्न किया - ‘‘शरद दा ! आप जो लिखते हैं वह तो हमें समझ में आ जाता है, पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ लिखते हैं, उसे हम समझ नहीं पाते।’’ प्रश्न सुनकर शरद बाबू बोले, ‘‘भैय्या, बात यह है कि मैं आफ लिए लिखता हूँ, और गुरुदेव मेरे लिये।’’
व्यास जी आम आदमी के लिये लिखते थे। उन्होंने अपनी रचनाओं को सभी प्रकार की क्रान्ति का हथियार बनाया, जो उस समय की आवश्यकता थी। वे जन कवि थे, जनता के बीच रहते थे। हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियाँ उनकी रचनाओं पर सही ढंग से चरितार्थ होती थीं -
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हमसे बडा तू दिख ।
श्री रघुवीर सहाय के शब्दों में, ‘‘मैं फिर दोहराना चाहता हूँ कि जो रचना पाठक या श्रोता के मन में पतन का विकल्प तैयार नहीं करती, न तो साहित्य की उपलब्धि होती है न समाज की।’’
व्यास जी की रचनाओं में कुछ और हो या न हो, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना के जागरण की अद्भुत शक्ति तो उनमें थी ही, इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता। मुझे तो यूँ लगता है कि व्यास जी की रचनाओं में कवि के संस्कार, संवेदन तथा सरोकार सभी की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। ऐसा नहीं है कि व्यास जी की कविताओं या गीतों में प्रतीक या बिम्ब है ही नहीं। कई रचनाओं में कवि ने प्रतीकों के माध्यम से भी अपने अनुभवों को सशक्त एवं सार्थक अभिव्यक्ति दी है, उनकी इस कविता को ही लीजिए -
मैंने पत्थर से प्यार किया,
सर्वस्व उसे स्वीकार किया,
मेरे कोमल अन्तस्तल में,
पत्थर ही पत्थर भरे हुए,
जूने पत्थर हैं भरे हुए,
सूने पत्थर हैं भरे हुए ।
उनको सम्मान अपार दिया
मैंने पत्थर से प्यार किया ।
अपने व्यंजक अर्थ में पत्थर मात्र् पत्थर न होकर ऐसे लोगों का प्रतीक है जो उनके साथी-संगी तो बने रहे पर उनके कोमल हृदय के उच्छ्वासों का एहसास नहीं कर पाये। पत्थर उन लोगों का प्रतीक है, जो दलित, शोषित एवं उपेक्षित रहे। ऐसे उपेक्षित लोगों को व्यास जी ने गले लगाया। इस कविता से ऐसा लगता है कि कवि और पत्थर दोनों समानान्तर एक ही आवाज, एक ही पीडा और एक ही दर्द के हमराही हैं। समाज का यह पूरा शोषित वर्ग पत्थर हो चुका है। उसका स्वानुभूत सत्य ही झिंझोडता है कि पत्थर मूल्यवान है। अतः विद्रोह फूट पडता है - संघर्ष ही एकमात्र् विकल्प शेष रह जाता है।
व्यास जी की कविताएँ समाज के मानस को उद्वेलित करने वाली कविताएँ हैं तो उनके स्वर राष्ट्रीय चेतना के प्रेरक स्वर भी हैं। उनकी रचनाएँ हास्य-परम्परा का निर्वाह भी करती हैं तो दमन और शोषण के विरुद्ध समाज के क्रोध को जगाए रखती हैं। व्यास जी में सपाट बयानी है तो उनकी कविताएँ साहित्यिक तत्त्वों का स्पर्श करती हुई दिखाई देती हैं। आपने हिन्दी और राजस्थानी दोनों ही भाषाओं में रचनाएँ की हैं। सहज सम्प्रेषित होने वाली रचनाओं के लिए युगीन आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए सरल भाषा का प्रयोग किया गया है। भाषा के सरलीकृत रूप को अभिव्यक्ति की सरलता से जोडना रचनाकार के साथ न्याय नहीं होगा। जहाँ एक ओर परम्परा का निर्वाह करते हुए व्यास जी ने छन्दबद्ध कविताओं की रचना की है, वहाँ अपने स्वभावगत परम्परा से हटकर नवीनता की ओर आकर्षित होते हुए छन्दमुक्त कविताएँ भी लिखी हैं।
व्यास जी ने गद्य-पद्य दोन ही विधाओं में रचनाएँ की हैं। आपकी रचनाओं का केन्द्र रूढग्रस्त, शोषित-पराधीन समाज में उपेक्षित, शापित-तापित की तरह साँस ले रहा आम आदमी ही रहा है। आफ उपन्यास हों या कहानियाँ, नाटक हों या बाल साहित्य, इनके मूल में सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करना ही है। वे इन स्थितियों एवं समस्याओं की ओर मात्र् इंगित ही नहीं करते, उनका समाधान खोजने का प्रयास भी करते हैं। व्यास जी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की इस मान्यता के समर्थक हैं कि -
हो रहा है जो जहाँ पर हो रहा,
यदि वही हमने कहा तो क्या कहा
किन्तु होना चाहिए कब क्यों कहाँ
व्यस्त करती है कला ही यह यहाँ । - (साकेत)
उनके उपन्यास ‘प्यार की परख’ को ही लीजिए। मदालसा का उल्लेख पुराण में हुआ है, एक ऐसी विदुषी है जो अपने बच्चों को पालने में ही संसार से विरक्त होने का उपदेश देती है। ठीक ऐसी तो नहीं पर युग के अनुसार इसी प्रकार की विचारधारा की पोषक मदालसा व्यास जी के एक अप्रकाशित उपन्यास ‘प्यार की परख’ की नायिका भी है। यह मदालसा अपने पति को देश के लिए तन-मन-धन सर्वस्व समर्पित करने को प्रेरित करती है।
व्यास जी की कहानियों में ‘रमाकान्त का इस्तीफा’, ‘नत्थू चाचा रिटायर हो गये’, ‘स्वामी जी की समाधि’, ‘मामा जी चले गये’, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कहानियों में व्यास जी समाज में भ्रान्त समझे जाने वाले तथाकथित बडे लोगों के बौनेपन को बडी कुशलतापूर्वक दिखाते हैं। वे सफेद तागे की तरह दिखने वाली बखिया अपनी कहानियों, उपन्यासों में बडी सहजता से उखेड देते हैं। व्यास जी की कहानियों का रूप सहज है, भाषा सरल है व उद्देश्योन्मुखी है। पर यह स्वीकार करने में तनिक भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि व्यास जी की कहानियों में नवीनता के नाम पर चौंकाने वाला शिल्प नहीं है। सामाजिक समस्याओं एवं उनके प्रश्नों से जुडा लेखक सामाजिक परिवेश में गहराई तक पग-पग पर फैली कुण्ठाओं, कुत्साओं एवं अन्तर्विरोधों से आँखें बचा नहीं सकता। व्यास जी की कहानियों में करुणा की गहराई है, संवेदना की सघनता है तथा व्यापक मानवीय सोच की अन्तर्दृष्टि लक्षित होती है।
समाज के हर वर्ग के लिए चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, किसान हो या श्रमिक, शिक्षक हो या विद्यार्थी, उन्होंने साहित्य रचना की। उन्होंने अपनी वाचिक परम्परा का निर्वाह करते हुए समाजोत्थान व देश सेवा के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया। विद्यार्थी-समाज में व्याप्त अनुशासनहीनता से व्यथित व्यास जी ने ‘सभ्य सोहन’ शीर्षक से बालकों के लिए पुस्तक लिखी। व्यास जी समाज में होने वाले बाल विवाहों के प्रति भी कम चिन्तित नहीं थे। जहाँ उन्होंने बाल विवाह का जन-आंदोलन के माध्यम से विरोध किया, वहीं ‘अनुचित विवाह’ और ‘परिवर्तन’ नाटक लिखकर जन-जागृति में योगदान दिया। इन कृतियों के अतिरिक्त ‘विद्यार्थी भावना’, ‘आत्म जागृति’, ‘मोक्ष की कुंजी’, ‘जैन पाठावली’ आदि कृतियों से बालकों के लिए सद्साहित्य की रचना की।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि व्यास जी की कविताएँ हों या कहानियाँ, उपन्यास हों या नाटक उनमें आम आदमी की जिन्दगी है, उनकी समस्याएँ हैं, अपने छोटे बडे सपनों को सच बनाने के लिए किया जाने वाला संघर्ष है, व्यवस्था से टकराव है, शासन की क्रूरता के विरुद्ध शंखनाद है - वह सब कुछ जिससे एक नैतिक, मेहनती, देशभक्त समाज बना रह सके, बचा रह सके। व्यास जी की रचनाएँ इस दिशा में एक ईमानदार प्रयास कहा जा सकता है। व्यास जी का समूचा व्यक्तित्व एवं उनका साहित्य सफलता के कठिन दरवाजों तक पहुँचने के ईमानदार रास्तों का पता लगाने का एक अनुकरणीय प्रयास है।
व्यास जी की कविताओं के सम्बन्ध में दुष्यन्त की गजल का यह शेर पूर्णरूपेण चरितार्थ होता है -
मुझ में रहते हैं बहुत से लोग चुप कैसे रहूँ ?
हर गजल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
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