Friday, 16 September 2011

राजस्थान की समकालीन हिन्दी कविता - डॉ. रमेश मयंक

डॉ. रमेश मयंक

अबकी अगर लौटा तो वृहत्तर लौटूँगा 
अबकी अगर लौटा तो हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता पूर्णतर लौटूँगा । 
                                  - कुँवर नारायण 

राजस्थान की समकालीन हिन्दी कविता ‘कविता से कविता तक’ के माध्यम से, ‘रेत पर नंगे पाँव’ के पश्चात् विराट् के संधान की एक बडी कोशिश के रूप में चर्चित है। राजस्थान प्रान्त के 70 कवियों की कविताएँ अपनी कथ्य भंगिमाओं में सरल दीखती हैं, लेकिन जितनी सरलता अभिव्यक्ति की सादगी और पद विन्यास में दीखती है, उसकी अभिव्यंजना उतनी ही अर्थगर्भी और सुदूरगामी है। इन कविताओं में जीवन की उन तमाम आयामों को सहेजा गया है जो तात्कालिक यथार्थ के घटाटोप से नहीं, वृहत् जीवन यथार्थ के शाश्वत प्रश्नों से टकराते हुए उपजे हैं। वे बार बार अकाल, रेत, अभाव और आतंक से टकराते अनुभव की मुट्ठियों में जीवन का अमूल्य सारांश लेकर लौटते हैं।
समकालीन शब्द की विवेचना परम्परा और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में, विशिष्ट कालखण्ड में, नए सिरे से तथ्य की पहचान और परख के रूप में की जाती है। समकालीन कविता का विश्लेषण साहित्य के भीतर निहित उस मूल तत्त्व की प्रतीति एवं प्रवृत्ति के रूप में माना गया है जो मनुष्य के बीच भेदभाव, घृणा, संकीर्णता आदि के परित्याग की प्रेरणा देती है। 
समकालीन कविता एक रचनात्मक विरासत है, समृद्ध विचारशील मस्तिष्क की उपज है, जीवनानुभव और भावनाशील, आक्रोशित आवेशित उद्वेलित मन की सबल, सटीक व सचोट अभिव्यक्ति है। इसमें प्रयुक्त भाषा की धार पैनी है। यह आदर्श और यथार्थ के बीच सेतु बनाती है। समकालीन कविता कल के यथार्थ को, आदर्श को, स्वप्न को साकार करने की वह शब्द यात्र है जो मानवता को अनुगामी मानती है। 
राजस्थान की समकालीन कविता में युग एवं परिवेश से संपृक्त हमारी आशा निराशा, आकांक्षा अपेक्षा, राग विराग, हर्ष विषाद, राजनीतिक और आर्थिक दिशा में अस्थिरता, समस्याओं व चुनौतियों से यातनापूर्ण संघर्ष, मन के भीतर का अलगाव, असंतोष, आक्रोश, अस्वीकृति, विद्रोह की छटपटाहट बहुत स्पष्ट रूप से उभारा गया है। वैश्वीकरण के कारण मंडराते खतरों, भ्रष्टाचार के मुद्दों, मशीनीकरण के कारण उपजा सांस्कृतिक संक्रमण तथा दलित व स्त्री विमर्श की चिन्ताओं जैसे मुद्दों को तल्खी से रेखांकित किया गया है। आतंक, अकाल, पानी का संकट, टूटते जीवन मूल्य इत्यादि इसके आयाम हैं। इनकी समग्र अभिव्यक्ति जो प्रांतीय धारा को मुख्य धारा से जोडती है तथा सृजन मानस की रागात्मक पहचान का प्रदेय प्रदान करती है। 
‘कविता से कविता तक’ की रचनाओं तक गुजरते हुए मैं बडे आत्मविश्वास के साथ पुरजोर शब्दों में पुष्टि कर सकता हूँ कि ‘‘प्रांत के कवि ने समय को समझा है। व्यक्तिगत उद्गारों की अभिव्यंजना, मनोमंथन की प्रेरणा का आधार प्रदान करने के रूप में ग्रहण की है। राजस्थान का कवि परिवेश में व्याप्त विसंगतियों को उजागर ही नहीं करता, अपितु शब्दों की पैनी धार से आर पार की लडाई लडता है। अपने चारों ओर फैली भूख, गरीबी, अन्याय, इंसान की इंसान के साथ ज्यादतियों का कच्चा चिट्ठा परत दर परत खोलता जाता है। उसकी चिंता साहित्य की चिंता है। वह पर्यावरण प्रदूषण, विश्वतापीकरण की आसन्न विपत्तियों से हताहत होने के बजाय हिताहित की राह अपनाता है। वह परिवर्तन कामी उस प्रभामण्डल का रचाव करना चाहता है, जिसमें सामाजिक जीवन में घूसखोरी समाप्त हो सके, कालेधन के कारण नैतिक मूल्यों का क्षरण रुक सके, इंसान पर पतन का काला मंडराता साया समाप्त हो सके। 
‘रेत पर नंगे पाँव’ के पश्चात् की कविता यात्र का यह सफर जीने का रास्ता बताने वाला, उजाले के स्वप्न रचने वाला, सुनहरे कल के भविष्योन्मुखी कल्पना लोक के यथार्थ में बदलने का सफर है। यह प्रकाशन समय का जीवंत दस्तावेज है, समय की सच्चाइयों का दर्पण है, विकासशील समाज की अनन्त संभावनाओं का रश्मिपुंज है, जिसमें 70 कवियों की रचनाएँ प्रस्तुत हैं। सुधी संपादक डॉ. भगवतीलाल व्यास ने जन्मतिथि के आधार पर नंद चतुर्वेदी से अतुल कनक तक को समाहित किया है, जिनकी आयु में 44 वर्षों का अंतर है। प्रसिद्ध तेलुगु कवि आंब्बिनि कहते हैं, ‘‘करती है भाषा साँस का अभ्यास, परिहास के कंटीले झाडों पर और नंद चतुर्वेदी दुनिया जानने के लिए शरीर को ही जानते हैं, क्योंकि देहातीत प्रेतात्माओं के लिए नहीं बनी है यह पृथ्वी।’’ दुःखद मृत्यु के कारक बम ब्लास्ट करने वाले अमर नहीं होंगे 
बम ब्लास्ट की ये दुर्दान्त दुखद मृत्यु 
किसी मजहब के रजिस्टर में दर्ज नहीं होगी 
अमर तो वे फूल लाने वाले लडके ही होंगे 
हमारी यादों में, बम फोडने वाले अधम 
समय के किसी गड्डे में दबे मिलेंगे। 
(नंद चतुर्वेदी, पृ.19) 
राजस्थान प्रांत के कवियों की कलम नवीनता का बोध कराती, भविष्य के लिए चिंतातुर है 
कालातीत काल में निरन्तर प्रवाहित गति 
जो शून्य से वर्तमान तक जुडी 
अपनी नित्य नवीनता का बोध कराती 
जाने क्यों भविष्य प्रेरित करती है ? (पृष्ठ 22) 
यह हमारा विश्व बारूदी हवस में 
अपनी हत्या के लिए स्वयम् कटिबद्ध 
बारूद के ढेरों पर महल बना रहा है 
और कम्प्यूटरी आवेश में 
अणुधर्मी चिनगारियाँ उडा रहा है 
कहो, अब क्या होगा भावी इतिहास ? (पृष्ठ 27) - प्रो. सुरेन्द्र दत्त बहुगुणा 
प्रान्त का कवि आगाह करता है कि शब्दों में अन्तर्निहित सत्य नहीं देखे गए, स्वप्न अवचेतनी मूर्त होने लगे, विडम्बना यह है कि धरती पर आडम्बर जीवन मूल्य बना है, आदमी ने कृत्र्मिता से लदकर प्रकृति के सहज सत्य को ठुकराया है। कमर मेवाडी मानते हैं, ‘‘भयंकर संक्रमण का समय है, वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद आदमी बार बार लौट आता है आदिम युग की ओर।’’ (पृष्ठ 142) फिर भी डॉ. सावित्री डागा अदम्य संघर्ष का संकेत करती है, ‘‘जहाँ का व्यक्ति न पकता न चुकता न बुढाता, मेरी अकेली हिम्मत को, समय भी नहीं दे पाता घात।’’ (पृष्ठ 147)। 
प्रांत का कवि आशा और निराशा के भाव लोक में विचरण करता है। वास्तविकता का बीज/उगता है एक दिन/ बंजर में (मदनमोहन परिहार, पृ.53)। इसी अंधेरे में उगेंगे पंखधारी प्रकाशकण/जो दिखाएँगे मुझे, मेरा जीवन पथ (विजेन्द्र, पृ.84)। मैं देखता ह उष्मा से लदे फदे नवांकुरों के चेहरों का उजास और सुनता हूँ, फूलों की सरगम के बीच बिखरी हुई मौसम की लय (भवानी शंकर व्यास ‘विनोद’, पृ.92)। धनपत राम झा कहते हैं, ‘लडूँगा शब्दों के शस्त्रें की जंग, बिखेरूँगा भावों से झरती उमंग’ (पृ.102), तो डॉ. भगवती लाल व्यास प्रसन्न गंध की तलाश करते हैं 
अब बचा भी क्या है 
काटे गए पेडों और पाटे गए सरोवरों के बारे में 
छपने वाली खबरों के सिवा 
कोई नहीं है फिक्रमंद, दिन ब दिन 
तडकने वाली जमीन के लिए। (पृ. 169) 
मैं निराश नहीं हूँ 
इतने फूलों के होते हुए 
किसी में तो होगी प्रतीक्षित प्रसन्न गंध (पृ. 171) 
डॉ. पुरुषोत्तम छंगाणी चुप नहीं रहना चाहते हैं 
सुनो, दबाने से फट जाती है पृथ्वी भी 
मैं अनफटा कैसे रहूँ, मैं कब तक चुप रहूँ। 
(पृ.163 164) 
शिव मृदुल का मानना है कि ‘एक बार फिर छा गया, वातावरण में हवा का आतंक’ (पृ.177), ‘सबने मिलकर कर दिया है बौना, इस पीढी के कान्हा को’ (ताऊ शेखावाटी, पृ. 187), ‘शोक को संताप में तब्दील करती औपचारिक संवेदनाओं की दुधारी मार’ (नंद भारद्वाज, पृ.227)। फिर भी आशान्वित हैं हम मीठेश निर्मोही के शब्दों में, ‘बैसाखियों के सहारे खडे इन लोगों के भीतर उगा डर कौंपलाने लगता है’ (पृ.258) तथा माधव नागदा मधुर अनुगूँज का अनुभव करते हैं, ‘अन्तस् की उपत्यकाओं में, बहुत दूर तैर रही है मधुर अनुगूँज’ (पृ.270)। डॉ. सत्यनारायण व्यास कहते हैं कि ‘सबसे बडा सत्य खुद पर विश्वास है’ (पृ.279)। 
समकालीन समय 
नई शताब्दी की त्रसदी को, 
बढती महँगाई को बयान करता है 
व बेनकाब करता है, 
छद्म भरे मुखौटों को 
हर बार वातावरण में 
बढता रहा महँगाई का कद 
और वातानुकूलित कोठी में 
दिग्गजों के वेतन और भत्ते 
किसी ने नहीं सुनी 
अखबार के भाव ताव वाले पृष्ठों की चीख । 
(शिव मृदुल, पृ.178) 
मन का जोगी करता रहा भोर के तारे की प्रतीक्षा 
रास्ते से उतरता नीविड मन प्रान्तर 
सन्नाटा सा फैला है 
चन्द्रमा धीरे धीरे सरक रहा है 
अनजाने पथ पर नाउम्मीद एक जागी 
घूम रहा है पगडंडियों पर 
भोर के तारे की प्रतीक्षा करते हुए 
(सुशील पुरोहित, पृ.293) 
हरीश आचार्य कहते हैं कि ‘आँधी तूफाँ में भी हमने जिंदा रखी कविताएँ’ (पृ.300)। उपेन्द्र अणु के शब्दों में ‘मेरे चारों ओर उग आए हैं वहशियाने थूहर, समय बहुत कठिन है’ 
इस कठिन समय में लोगों के सिर तक पानी 
गले तक घाव, वैशाख की दोपहर की तरह 
गायब राहत की छाँव 
मैं चैन की नींद सो जाऊँ, मुझसे नहीं होगा 
(डॉ. रमेश मयंक, पृ.320) 
डॉ. रजनी कुलश्रेष्ठ कविता के माध्यम से इतिहास के मौन अँधेरों में सूर्यबीज टटोल कर रोशनी की प्रवक्ता बनती है ‘मेरी कविता/इतिहास के मौन अँधेरों में/काँपते हाथों से/टटोलती है सूर्यबीज !’ (पृ.324) तथा डॉ. पद्मजा शर्मा ‘इस सृष्टि में बस चौतरफा प्यार का प्रकाश पाती है’ (पृ.369)। 
विधागत दृष्टि से विचार करें तो प्रांत के समर्थ गीतकारों में मरुधर मृदुल, डॉ. मनोहर प्रभाकर, विश्वेश्वर शर्मा, डॉ. दयाकृष्ण विजय, बलवीर सिंह करुण, किशन दाधीच इत्यादि अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी गीत ऊर्जा को सबल सार्थक संवाद बनाकर प्रभावित किया है। उनकी अभिव्यक्ति पावन गंगा की तरह निर्मल, समृद्ध व परिपक्वता लिए हुए है 
शासन दण्ड ने तंत्र् अपना कसा 
फाल्गुनी सूर्य नीले नयन में हँसा । 
डॉ. दयाकृष्ण विजय, पृ.37 
मान लिया आतंक तीसरा मूल्य मनुज जीवन का। 
छूट गया तब शिवम् भूमि पर भय छाया शासन का ।। 
डॉ. रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’ 
छत टूटी, आँगन टूटा है, तिडक गई दीवार सभी, 
नींव सींव में सब टूटा है, टूट गए आधार सभी, 
जिसका बाहर ही बाहर हो, ऐसी एक हवेली हम, 
जिसकी सारी कटी लकीरें, ऐसी एक हथेली हम । मरुधर मृदुल, पृ.58 
कब अँधेरों ने लूटा है हमको, सब उजालों के घाटे हुए हैं। 
इस जहर का उतरना है मुश्किल, हम बहारों के काटे हुए हैं।। विश्वेश्वर शर्मा, पृ.72 
शायद महानाश पनपेंगे, आँगन में आकाश के । 
महके कम, दहके ज्यादा हैं, टेसू सुर्ख पलाश के ।। बलवीर सिंह करुण, पृ.128 
अब कबीर सूर जायसी, पोथियों के पाठ हो गए । 
अर्थ से लिपटे हुए कथन, शब्द से विराट् हो गए ।। किशन दाधीच, पृ.230 
सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध रचनाकारों ने बेटियों, दलितों, वृद्धों, कन्या भ्रूण हत्या, स्त्र्यिों के प्रति संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की है, उनमें प्रतिनिधि हस्ताक्षरों में गोपाल प्रसाद मुद्गल, डॉ. रणजीत, डॉ. महेन्द्र भानावत, डॉ. कैलाश जोशी, शकुन्तला गौड शकुन, गोविन्द माथुर, डॉ. चन्द्रप्रकाश देवल, हरिराम मीणा, डॉ. रमेश मयंक, अंबिकादत्त, ओम पुरोहित कागद, कुन्दन माली, प्रदीप भट्ट, विजय सिंह नाहटा इत्यादि प्रमुख हैं। 
क्या होगा राम जाने, ये मशीन क्या चली । 
मरती है कोख में ही, ये हमारी बेटियाँ ।। 
गोपाल प्रसाद मुद्गल, पृ.63 
गजल विधा में डॉ. मनोहर प्रभाकर ने अपनी उपलब्धि प्रांत के अग्रणी पंक्ति के रचनाकारों में कराई है 
गई कलम की धार कहाँ है ? 
खनक रहा कलदार जहाँ है, 
सर्जक सत्ता के गिरवी है, 
सच का पहरेदार कहाँ है ? (पृ.67) 
शिल्प की दृष्टि से पिशाची अट्टहास, व्यक्ति पूँजी हो गया है, साहित्य सागर, मन का भोज पत्र्, पुण्य की फसल, राग की ऋचा, मन का मानसरोवर, पौरुष की लाश, मखमली शब्द, हारा थका बूढा सूरज, तेल के भाव में उबाल, सभ्यता का दबाव, क्रान्ति का पथ, तालियों की गडगडाहट का अनवरत नाटक, रेत राग आदि अभिव्यक्ति कौशल को समृद्ध बनाते हैं। 
इस संकलन की कविताओं के उद्देश्य में पृथ्वी की एकात्मकता, सबको एक दूसरे के पास लाने की मुहिम, एक दूसरे के दुःख सुख साझा करने की विश्वव्यापी सद्भावना, युद्धों और द्वेषों को खत्म करने का उद्यम, ज्ञान विज्ञान के संचार की व्यापक पहल, बार बार अंकुरित पोषित पल्लवित होती करुणा की फसल, प्रेम भावना, दर्द को बाँटकर कम करने की कवायद हमारी सांस्कृतिक विरासत के रूप में केन्द्र में रही है। भाषा का लालित्य और लयात्मकता, शिल्प सौष्ठव रेत के भीतर बहती एक नदी की तरह विद्यमान है जो दर्द में भी तृप्ति का अहसास कराती है। प्रांत का प्रत्येक कवि समकालीन सोच से जुडकर शब्द साधना के प्रति प्रतिबद्ध है। डॉ. जयप्रकाश पंड्या ज्योतिपुंज के शब्दों में 
दर्द ये भी भ्रम सही पर है समय की साधना 
इस सृजन के रूप में भी दर्द की आराधना 
दर्द के लिए बँटा हुआ है आज आदमी 
दर्द के सिरे बहुत है किस सिरे से इसे बाँधना 
जन्दगी में दर्द के सिवा तो कुछ नहीं मगर 
जन्दगी में दर्द के सिवा भी कुछ तो और है। (पृ.297) 
प्रत्येक व्यक्ति का दर्द हरने की इस अनवरत शब्द साधना का सहभागी राजस्थान का कवि इतिहास के मौन अँधेरों में सूर्य बीज टटोलकर रोशनी का प्रवक्ता बनेगा। यह कविता यात्र अग्निपथ से अग्निपथ तक की यात्र है। यही नियति है और चिरन्तन सत्य भी है तथा सनातन राह भी। इसी पथ पर कवि कलम की गूँज कविता बनकर चरैवेति चरैवेति रहेगी। निःसन्देह जीवन के सत्य से मिलेगी हमारी यह शब्द धारा। सावधान रहना होगा भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की चालों से तथा अनवरत रूप से तीखी तेज, नुकीली और भारी भरकम हथौडे से बनानी होगी शब्दों की धार को, शब्दों की चोट विस्फोट कर सके, एक नए सृजन के लिए, तभी बचेगा पृथ्वी का प्रेम, करुणा और मनुष्यत्व। 

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