Saturday, 27 August 2011

राजस्थानी राजप्रासाद और स्थापत्य

राहुल तोन्गारिया
स्थापत्य का विशिष्ट रुप राजप्रासाद है। प्राचीनकाल के राजप्रासादों के खण्डहर पूरी तरह उपलब्ध नहीं होते, परन्तु यह निश्चित है कि जब से राजस्थान में राजपूतों के राज्य स्थापित होने लगे तब से राजभवनों का निर्माण होने लगा। मेनाल, नागदा, आमेर आदि में पूर्व मध्यकालीन काल में राजभवनों के अवशेष देखने को मिलते हैं जिनमें छोटे - छोटे कमरे , छोटे - छोटे दरवाजे तथा खिड़कियों का अभाव प्रमुख रुप से होता रहा है। दो किनारों कमरों को बरामदे से जोड़ा जाना भी राजभवन के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता रही है।
मण्डन शिल्पी ने राजभवनों को बनाने का स्थान या तो नगर के बीच में या नगर के एक कोने में ऊँचे स्थान पर ठीक माना है। उसके अनुसार राजभवनों के ढ़ाँचे में दुर्गों की भांति प्राकार तथा कुओं का होना आवश्यक माना जाता है। उसके अनुसार अन्त: पुर और पुरुष कक्षों को सँकरे ढ़ँके हुए भागों से जोड़ना अच्छा समझा जाता है। उसने महलों में दरबार लगाने, आम जनता एवं दरबारियों से मंत्रणा करने के कक्षों पर बल दिया है राजभवन के अन्तर्गत रसोईघर, शस्रागार, धान्य भण्डार, मंदिर, राजकुमारों के कक्षों को मान्यता दी है जो भारतीय शास्रीय पद्धति के अनुरुप है। वैसे राजभवन साधारण गृहस्थ के मकानों का वृहद रुप मात्र है, जिसमें सादगी की मात्रा अधिक देखी गई है। नीची छतें, छोटे - छोटे आवास, पतली गैलेरियाँ, छोटे - छोटे दालान इन राजभवनों की विशेषता रही है। महाराणा कुंभा जैसे शक्तिशाली व संपन्न व्यक्ति ने, जिसने कई विशाल दुर्ग बनवाएँ, अपने लिए कुम्भलगढ़ में सादे मकान स्वयं के रहने के लिए बनवाया जो साधारण व्यक्ति के मकान से अधिक विशएषता नहीं रखता था। परन्तु जब राजपूतों को सम्बन्ध मुगलों से जुड़ा तथा उनमें आदेन - प्रदान का क्रम आरम्भ हुआ तो इन राजभवनों को भव्य, रोचक तथा क्रमबद्ध बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इनमें फव्वारें, छोटे बाग, पतले खम्भे, दीवारों पर बेलबूटे, संगमरमर का काम, आदि का समावेश हो गया।

उदयपुर के अमरसिंह के महल, जगनिवास, जगमंदिर, जोधपुर के फूलमहल, आमेर व जयपुर के दीवाने आम व दीवाने खास, तथा बीकानेर के रंगमहल, कर्णमहल ,शीशमहल, अनूपमहल आदि में राजपूत तथा मुगल - पद्धति का समुचित समन्वय है। बूँदी, कोटा तथा जैसलमेर के महलों में मुगल शैली क्रमश: बदलती दिखाई देती है। कारण यह है कि ज्यों - ज्यों राजपूत सरदार मुगलों के दरबार में अधिकाधिक जाने लगे, त्यों - त्यों कलात्मक विचारों का आदान - प्रदान भी होने लगा तथा उनमें मुगली शान के अनुरुप अपने राज्य में व्यवस्था लाने की भी रुचि बढ़ने लगी। मुगलों के पतन के पश्चात् तो मुगल - आश्रित कई कलाकारों के परिवार राजस्थान में आकर राजपूत दरबार के आक्षित बन गए। यहाँ तक सामन्तों तथा समृद्ध परिवारों के भवनों में भी यह समन्वय की प्रक्रिया बढ़ती गई। राजभवनों का निर्माण समन्वय परक हो गया। आज महलों पर पारिवारिक स्थापत्य का स्वरुप समन्वय के माध्यम से ही परखा जा सकता है।

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