Thursday, 25 August 2011

स्वतन्त्रता पूर्व राजस्थान में सामाजिक सुधार

पृष्ठ भूमि:

19 वीं सदी मे भारत ने पुनर्जागरण के युग में प्रवेश किया, समाज सुधार आन्दोलन हुए, राजस्थान भी इस जागरण से अछूता नहीं रहा। प्राचीन काल से ही कुछ प्रथाऐं और परम्पराये विकसित हुई कुछ नई प्रथाओं ने जन्म लिया कुछ पुरानी प्रथाओं ने विकृत स्वरूप ग्रहण कर लिया था, फलस्वरूप समाज को एक नई क्रांन्ति की आवष्यकता हुई। राजपूताना का समाज कई धर्मो मुख्यतः हिन्दू,जैन, मुस्लिम और सिक्खों से संगठित समुदाय था। हिन्दु समाज की वर्ण व्यवस्था जातिगत स्वरूप में स्थापित थी, जातियाँ उपजातियों में विभक्त थी। प्राचीन काल में समाज में वर्ण व्यवस्था श्रम और कार्य विभाजन पर आधारित एक सकारात्मक व्यवस्था थीं, लेकिन कालान्तर में यह जातीय स्वरूप ग्रहण करते हुए कार्य विभाजन नकारात्मक स्वरूप सोपान व्यवस्था में बदल गई। विवाह संस्था सामाजिक संगठन की सबसे मजबूत व्यवस्था रही है, लेकिन इसमें भी बालविवाह, अनमेल विवाह, जैसे तत्व जुड़ गये। इसी प्रकार कुछ अन्य कुप्रथाऐं सती प्रथा, दासप्रथा, मानव व्यापार, डाकन प्रथा, समाधि, मृत्यु,आदि प्रथाये अपनी जड़े जमाने लगी थी। योग, दर्षन, मन, बुद्धि और शरीर को स्वस्थ रखने वाला महान भारतीय दर्षन है, लेकिन कुछ लोगों ने योगिक क्रियाये सीखकर इसका दुरूपयोग करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार 19 वीं सदी के राजपूताना में अनेक कुप्रथाये स्थापित थी। पुरातनपंथी विचारों से इन्हें संरक्षण भी मिल रहा था। राजनीतिक और आर्थिक ढ़ाचा इस व्यवस्था से प्रभावित था।

ब्रिटिश सर्वोच्चता काल :

1818 - 15 अगस्त 1947 राजपूताना में 1818 के ब्रिटिश कम्पनी से सन्धियों और 1857 के बाद ब्रिटिश ताज की सर्वोच्चता स्थापित होने के बाद स्थितियाँ बदलने लगी। यधपि प्रारम्भ में 1844 तक अहस्तक्षेप की नीति अपनाने के कारण कम्पनी सीधे जनसाधारण से सम्बध और धार्मिक मामलों मे हस्तक्षेप नहीं करना चाहती थी सामाजिक सुधारों के लिये कम्पनी उपयुक्त वातावरण तैयार करना चाहती थी। अंग्रेजो ने पहले प्रशासनिक, न्यायिक और आर्थिक धार्मिक परिवर्तन कर उपयुक्त वातावरण बनाया, शिक्षा को प्रोत्साहित किया, तत्पश्चात् सामाजिक जीवन में प्रचलित कुप्रथाओं के निवारण के लिये समाज सुधारकों ने भी अहम भूमिका निभाई, विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती की राजपूताना यात्रा इस दृष्टि से अपूर्व रही इन सुधारकों के अतिरिक्त 1919 -1947 तक सुधार कार्य राजनीतिक आन्दोलन कारियों के मार्गदर्शन में चला, जिसमें सामान्य जन भी जुड़ गया और क्रान्तिकारी परिवर्तन होने लगे।

विभिन्न सामाजिक कुप्रथाये व सुधार कार्य :
  • सती प्रथा : यह प्रथा भारत के अन्य क्षेत्रों के साथ राजपूताना में भी प्रचलित थी। मध्यकाल में मुहम्मद बिन तुगलक और अकबर ने भी इस प्रथा को रोकने का प्रयास किया। ब्रिटिश सर्वोच्चता काल में सामाजिक और सरकारी दोनों दृष्टि से सती प्रथा को रोकने के प्रयत्न हुये है राजा राममोहन राय के प्रयास से प्रेरित होकर लार्ड विलियम बैंटिंक ने 1829 में कानून बनाकर सती प्रथा को रोकने का प्रयास किया। गर्वनर जनरल विलियम बैटिक ने राजपूताना रियासतों को अनेक पत्र लिखे जिसमें उन्हाेने सती प्रथा को बन्द करने के लिये प्रेरित किया। अभिलेखागार में इस सम्बन्ध में अनेक दस्तावेज उपलब्ध है। 1844 तक ब्रिटिष अधिकारी विधि निर्माण के लिये दबाव की अपेक्षा परामर्श और प्रेरणा की नीति का अनुसरण करते रहे, यह प्रयास असफल रहे। इस अवधि में दक्षिण पूर्व राजस्थान की बूंदी, कोटा और झालावाड़ के शासकों व रियासतों के केप्टन रिचर्डस ने खरीता (आदेश) भेजा और सती प्रथा रोकने के कानून बनाने के निर्देष दिए। ब्रिटिश कम्पनी अभी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की नीति के विरोध में थी। अतः रिचर्डसन के खरीता भेजने के प्रयासों को ब्रिटिश अधिकारियों ने विरोध किया। यद्यपि इस अवधि  कम्पनी अपनी स्थिति रियासतों में मजबूत होने के कारण अहस्तक्षैप की नीति त्यागकर हस्तक्षेप की नीति अपनाने पर विचार कर रही थी। इसी परिपेक्ष में 1839 में पोलिटिकल एजेन्ट जयपुर की अध्यक्षता में एक संरक्षक समिति गठित की गई और सती प्रथा निषेध के लिये मंथन किया, इसके लिये उन्होंने सामन्तों और स्थानीय अधिकारियों का सहयोग लेना उचित समझा।

  • सती प्रथा उन्मूलन के प्रयास : 1844 में जयपुर संरक्षक समिति ने एक सती प्रथा उन्मूलन हेतु एक विधेयक पारित किया यह प्रथम वैधानिक प्रयास था जिसका समर्थन नहीं तो विरोध भी नहीं हुआ अतः इससे प्रोत्साहित होकर एजेन्ट टू द गर्वनर जनरल (ए.जी.जी.) ने उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर, सिरोही, बांसवाड़ा, धोलपुर, जैसलमेर, बूंदी, कोटा और झालावाड़ में स्थित ब्रिटिश पोलिटिकल एजेन्ट को निर्देष दिये कि वे अपने व्यक्तिगत प्रभाव का उपयोग करते हुए शासकों से सती उन्मूलन हेतु नियम पारित कराने का प्रयास करे। यह प्रयास कई रियासतो में सफल रहा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ ने 1846 में सती प्रथा को विधि सम्वत् नहीं माना। इसी क्रम में 1848 में कोटा और जोधपुर में भी और 1860 में अनेक प्रयासो के बाद मेवाड़ ने भी सती प्रथा उन्मूलन हेतु कानून बनाये गये। उक्त कानून का उल्लंघन करने पर जुर्माना वसूल करने की व्यवस्था की गई। 1881 में चाल्र्स वुड भारत सचिव बना, वुड ने कुरीतियों को रोकने के करने के प्रयासों को प्रभावहीन मानते हुए ए.जी.जी. राजपूताना को गश्ती पत्र भेजकर निर्देष दिये कि कुरीतियों को रोकने के किये जुर्माना की अपेक्षा बन्दी बनाने जैसे कठोर नियम लागू किये जाये। अतः 1861 में ब्रिटिश अधिकारियों ने शासकों को नये कठोर नियम लागू करने की सूचना दी, जिसके अनुसार सती सम्बन्धित सूचना मिलने पर कारावास का दण्ड दिया जा सकता है, जुर्माने के साथ शासक को पद से हटाने और उस गाँव को खालसा किया जा सकता है। यदि शासक इन नियमों की क्रियांवती में लापरवाही दिखाते है तो उन्हें दी जाने वाली तोपों की सलामी संख्या घटाई जा सकती है। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की दबाव, नीति और स्थानीय अधिकारियो के सहयोग से 19’ वीं सदी के अन्त तक यह कुरीति नियंत्रित हो गई कुछ छुट-पुट घटनाये अवश्य हुई। सरकार के अतिरिक्त सामाजिक जागृति के भी प्रयास हुये। स्वामी दयानन्द सरस्वती का राजस्थान आगमन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। उन्होने सती प्रथा को अनुचित एवं अमानवीय मानते हुए निन्दनीय कृत्य बताया। उन्होंने शास्त्रों के आधार पर इसका विरोध किया और समाज को एक नई दिशा प्रदान की। आजादी के बाद भी सितम्बर 1987 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मंे सती प्रथा को विधि सम्मत नहीं माना। न्यायालय ने अपने मत के समर्थन में पर्याप्त प्रसंगों को उद्धत किया।

  • कन्या वध  : 19.वी सदी का राजपूताना यदा-कदा कन्या वध की कुप्रथा से अभिशप्त था। कर्नल जेम्स टोड़ ने दहेज प्रथा को इसका एक प्रमुख कारण माना। दहेज और कन्या वध दोनों समाज के नासूर थे और एक दूसरे से जुड़े हुए थे।

  • कन्या वध उन्मुलन के प्रयास  : कन्या वध को रोकने के लिये अनेक कदम उठाये गये सर्वप्रथम मेवाड़ क्षेत्र में कन्या वध को रोकने के लिये महाराणा ने ब्रिटिश एजेन्ट पर दबाब डालकर कानून बनवाया। मेवाड़ के क्रम मे ही कोटा ने भी कन्या हत्या निषेध बनाया। 1839 मे जोधपुर महाराजा ने कोड आॅफ रूल्स बनाये। 1844 मे जयपुर महाराजा ने कन्या वध अनुचित घोषित किया। यद्यपि बीकानेर में कानून तो नहीं बनाया लेकिन 1839 में गया यात्रा के समय महाराजा ने सामन्तो को शपथ दिलाई की वे अपने यहां कन्या वध नहीं होने देंगे। 1888 के बाद कन्या वध की घटनाये लगभग समाप्त होना माना जाता है।

  • अनमेल व बाल विवाह : छोटी उम्र की कन्याओं का उनसे कई अधिक बड़ी उम्र के व्यक्ति से विवाह कर दिया जाता था। इस प्रकार के विवाह के पीछे मुख्य कारण आर्थिक परेशानियाँ थी। दासी प्रथा भी एक कारण था। इसके अनेक दुष्परिणाम थे। अनमेल विवाह के बाद लड़की अक्सर विधवा हो जाती थी और उसे पूरा जीवन कठिनाईयों में गुजारना पड़ता था।
                            अव्यस्क अवस्था के लड़की-लड़कों का विवाह की कुप्रथा भी सामान्य थी जिससे समाज के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा।

  • अनमेल व बाल विवाह उन्मुलन के प्रयास : अतः अनमेल एवं बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं को प्रतिबन्धित करने के लिये समाज सुधारक दयानन्द सरस्वती ने आवाज उठाई। 10 दिसम्बर 1903 मंे अलवर रियासत ने बाल विवाह और अनमेल विवाह निषेध कानून बनाया, राजपरिवारों से भी इसका कड़ाई से पालन करवाया गया।

  • दास-प्रथा : भारत में दास प्रथा प्राचीन काल से अस्तित्व मंे थी, राजपूताना भी इससे अछूता नहीं रहा। कालान्तर में यह व्यवस्था अधिक विकसित हुई, यहाँ दासों की संख्या के साथ कुल एवं परिवार की प्रतिष्ठा का आकलन होने लगा था। दास मुख्यतः चार प्रकार के होते थे- बन्धक जो युद्ध के अवसर पर बंदी बनाये गये, स्त्री और पुरूष। दूसरे विवाह के अवसर पर दहेज दिये जाने वाले स्त्री पुरूष, तीसरे स्थानीय सेवक सेविकाये, चैथे - वंशानुगत सेवक और सेविकाये थे जो कि स्वामी की अवैध संतान होते थे उनसे उत्पन्न पुत्र-पुत्री वंशानुगत रूप से सेवा करते रहते थे। इनकी सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी बिना शासक की अनुमति के ये विवाह नहीं कर सकते थे।

  • डाकन-प्रथा : डाकन प्रथा को ब्रिटिश अधिकारियों ने एक गंभीर कुप्रथा माना। यह लोगों का अन्धविषश्वास था। 1853 मे डाकन प्रथा की जानकारी मिलने पर ए.जी.जी. राजपूताना ने अमानवीय प्रथा को प्रतिबन्धित करने हेतु कानून बनाने के लिये शासको पर दबाव बनाया । 1853 में मेवाड़ रैजीडेन्ट कर्नल ईड़न के परामर्श पर मेवाड़ महाराणा जवान सिंह ने डाकन प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।

सामाजिक सुधार के प्रयत्न :
  •  कुप्रभावों के रोकथाम हेतु प्रयास : प्रचलित कुप्रभाओं को रोकने के लिये दो तरफा प्रयास हुये एक सरकारी प्रयास और दूसरे सामाजिक प्रयास। सरकारी प्रयासों मे समय समय पर रियासतों मंे कानून बनाने के अतिरिक्त मेवाड़ मंे देश हितेषिणी सभा और सम्पूर्ण राजपूताना में ए.जी.जी. वाल्टर के नेतृत्व में वाल्टर हितकारणी सभा के माध्यम से कानून बनाये गये।

  • देश हितेषिनी सभा : कवि श्यामलदास ने वीर विनोद में 2 जुलाई 1877 में उदयपुर मंे स्थापित देश हितेषनी सभा का उल्लेख किया है।, वह स्वंय इस संस्था के सदस्य थे। यह मेवाड़ रियासत तक ही सीमित थी, इस सभा का उद्देश्य विवाह सम्बन्धित कठिनाईयों का समाधान करना था, इसमें राजपूतानों के वैवाहिक कार्यो पर दो प्रकार से प्रतिबन्ध लगाये-
    • प्रथम विवाह खर्च सीमित करना।

    • दूसरा बहुविवाह निषेध के नियम बनाये।

    मेवाड़ की देश हितेषिनी सभा का उपरोक्त प्रयत्न पूर्ण सफल नहीं हो पाया क्योंकि इसमें ब्रिटिश सरकार का पूर्ण सहयोग नहीं मिला था। कमीश्नर रिपोर्ट से पता चलता है कि 1886 में मेवाड़ रेजीडेन्ट द्वारा ए.जी.जी. को भेजी गई रिपोर्ट मे मेवाड़ के देश हितेषनी सभा के नियमों में कुछ परिवर्तन करके अन्य रियासतो ने विवाह प्रथा में सुधार सम्बन्धित कदम उठाये है। इस प्रकार सामाजिक सुधार सम्बन्धित रियासत का पहला आंशिक सफल कदम था, बाद में मेवाड़ की तर्ज पर अन्य रियासतो में भी हितेषनी सभा बनाई गई।

  • वाल्टर कृत हितकारिणी सभा : 1887 ईं में वाल्टर राजपूताना का ए.जी.जी. नियुक्त हुआ। उसने अक्टूबर 1887 में रियासतों मे नियुक्त पोलटिकल एजेन्ट को राजपूतो के विवाह खर्च पर नियम बनाने के लिए परिपत्र लिखा। 10 मार्च 1888 को अजमेर में भरतपुर, धौलपुर और बांसवाड़ा को छोड़कर कुल 41 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में लड़के और लड़कियों की विवाह आयु निष्चित करने  और मृत्यु भोज पर खर्च नियंत्रित करने के प्रस्ताव रखे गये। जनवरी 1889 में वाल्टर ने दूसरा सम्मेलन आयोजित किया जिसमे पुराने सदस्यों में से केवल 20 सदस्य आये । इस सम्मेलल मे इस कमेटी का नाम ‘‘वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा’’ रखा गया। एक सप्ताह के सम्मेलन में आंकड़ो सहित सुधारो की प्रगति सम्बन्धी रिपोर्ट तैयार की गई और प्रति वर्ष सम्मेलन के आयोजन की व्यवस्था की, जिसमें सुधार कार्यो का आंकलन करके प्रषासनिक रिपोर्ट के लिये भेजा जाये। 1936 के वाल्टर सभा भंग करदी गई।
    1889 से 1938 के मध्य वाल्टर सभा के मुख्य कार्य निम्न थेः-
    • बहुविवाह प्रथा पूर्णतः समाप्त कर दी जाये।

    • विवाह आयु निश्चित करदी गई, लड़की कम से कम 14 वर्ष और लड़का कम से कम 18 वर्ष का होना चाहिये।

    • टीके का आशय लड़की के पिता पक्ष की ओर ने भेजे गये उपहार से था। रीत का तात्पर्य लड़के के पिता पक्ष की ओर से भेजे गये उपहार से था। विवाह के समय प्रचलित उक्त टीका और रीत प्रथा पर पूर्णत प्रतिबन्ध लगा दिये गये।


                          इसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे सामाजिक नियमों का गठन किया गया जिनसे कुप्रथाओं का यदि अन्त न होता हो तो उनमें कमी अवश्य आये। वाल्टर कृत हितकारणी सभा ने अपने कार्यकाल में सुधार सम्बन्धित अनेक कदम उठाये, लेकिन यह नौकरशाही व्यवस्था मात्र बन कर रह गई। सामाजिक सुधार हेतु कोई सक्रिय प्रभावशाली भूमिका नही निभा पाई लेकिन शासक वर्ग को सुधार हेतु मानसिक रूप से प्रभावित कारने में सक्षम थी।
                          सामाजिक कुप्रथाओं को रोकने के लिये सामाजिक प्रयत्न भी महत्वपूर्ण रहे, स्वामी विवेकानन्द की 1891 में यात्रा से नई जागृति आई जिसके परिणामस्वरूप धर्म से जुड़कर जो कुप्रथाये प्रचलित हो गई थी उन्हें तर्क के आधार पर समझकर लोगों ने मानने से इनकार किया। राजपूताना मे सर्वाधिक प्रभाव स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाज संगठन का पड़ा। दयानन्द स्वामी एक सन्त थे जो ईश्वर और आध्यात्मिकता के साथ साथ सामाजिक जीवन में व्यक्ति के अस्तित्व और उसके उत्तरदायित्व को समझाने का विवेक लोगों में विकसित कर पाये। उन्होंने सामाजिक अन्याय से संघर्ष का साहस और उत्साह पैदा किया। उन्होंने वाद-विवाद और गोष्ठियों को प्रोत्साहित किया जिससे समाज में तार्किक शक्ति विकसित हो। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया जिससे वे अपने साथ होने वाले अन्याय से लड़ सकती है। उन्होंने जाति-प्रथा, छूआ छूत, बाल विवाह, अनमेल विवाह का विरोध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया एवं राष्ट्रीय भावना को भी प्रोत्साहित किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने सामाजिक चेतना अभियान में शासक और कुलीन वर्ग की भूमिका पर विशेष बल दिया। आम जन को समाज सुधार के लिये संगठित रूप से कार्य करने हेतु आर्य समाज और परोपकारणी सभा के सदस्य सक्रिय हुए।
                        समाज सुधारकों द्वारा किये कार्यो का प्रभाव काल 1840-1919 माना जाता है 1919 - 1947 तक समाज सुधार कार्य राजनीतिक आन्दोलन के मार्गदर्शन में चला गया। राजस्थान आन्दोलन के सेवा संघ, कांग्रेस के नेतृत्व में ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रो तक में सामाजिक सुधार हेतु समर्पित हो गये। उन्होने जगह जगह शिक्षक संस्थायें खोली, गांधी जी ने स्वदेशी आन्दोलन चलाते हुए व्यवसायिक शिक्षा को भी स्वालम्बन का माध्यम बनाया हरिजनों को शिक्षित करने के अतिरिक्त उन्हें मन्दिरों में प्रवेश हेतु भी आन्दोलन किये तथा कार्य कर्ताओं ने परवाने तक साफ किये, जिससे कार्य की महत्ता सिद्ध हो जातिगत आधार पर कोई कमजोर या हीन नहीं माना जाये विधवाओं का और वैश्याओं का विवाह आदि कार्यक्रमों को केवल जागृति कार्यक्रम के रूप में नही चलाये, वरन् अनेक कार्यकर्ताओं ने इनसे विवाह करके समाज के समक्ष उदाहरण भी रखे। 1919-1947 के मध्य जो राजनीतिक आन्दोलन के साथ सामाजिक सुधार हुये थे वे इस दृष्टि से महत्वूर्ण थे कि यह उपदेशात्मक नहीं थे, वरन् प्रयोगात्मक थे। स्वंय कार्यकर्ता कुरीतियों को समाप्त करके एक अंहिसात्मक समाज स्थापित करने के लिये गाँधी के रचनात्मक आन्दोलन के इस सिद्धान्त से प्रेरित थे कि ‘‘अंहिसात्मक राष्ट्र भक्ति और समूह जीवन की एक आवश्यक शर्त है।’’

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