Friday, 16 September 2011

हिन्दी, राजस्थानी की विरोधी नहीं


श्रीकृष्ण शर्मा


२५ अगस्त, २००३ को ग्यारहवीं राजस्थान विधान सभा के कार्यकाल के अन्तिम क्षणों में राजस्थानी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने का एक संकल्प पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि ''राजस्थान विधान सभा के सभी सदस्य सर्व सम्मति से यह संकल्प करते हैं कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में में सम्मिलित किया जाए। राजस्थानी भाषा में विभिन्न जलों में बोली जाने वाली भाषा या बोलियाँ यथा ब्रज, हाडौती, बागडी, ढूँढाडी, मेवाडी, मारवाडी, मालवी, शेखावटी आदि शामिल हैं।''
मरु प्रदेश जो अरावली पर्वत मालाओं के उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक के भू भाग में है, बोली जाने वाली भाषा मरु भाषा ही थी जिसे कालान्तर में मारवाडी भाषा कहा गया। १९५० में राजस्थान निर्माण के बाद इसके विपुल एवं बहुविध साहित्य के अनेकानेक लेखकों, राजनेताओं और प्रवासी राजस्थानियों ने इसे 'राजस्थानी' नाम दे दिया। डॉ. ग्रियर्सन और डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने राजस्थानी भाषा का उद्गम शौरसैनी अपभ्रंश से माना है, किन्तु मैं इस मत से सहमत नहीं हूँ। शूरसैन प्रदेश की भौगोलिक इकाई की भाषा पर दूर दूर तक कोई प्रभाव नहीं है। अष्टछाप के आविर्भाव के पूर्व ब्रज भाषा लोक काव्यों और लोकगीतों की भाषा अवश्य थी लेकिन वह गद्य की भाषा कभी नहीं रही थी। फतहपुर सीकरी में सम्राट अकबर की राजधानी होने के उपरान्त भी ब्रजभाषा अकबर के राज दरबार की भाषा नहीं हो सकी। वह लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और अद्याशक्ति राधिका जी की भक्ति की ही भाषा बनी रही। और अष्टछाप के कवियों से लेकर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र और गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' तक श्रीकृष्ण-राधिका की आराधना की भाषा ही बनी रही। आज भी मीराँबाई, सूरदास के पद, रसखान तथा रहीम के छन्द कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा मणिपुर से बलूचिस्तान तक श्रीकृष्ण और राधिका की आराघना के पदों की अत्यन्त मार्मिक एवं हृदयग्राह्य भाषा बनी रही। जो भाषा प्रेम की भाषा रही है वह राजभाषा हो भी कैसे सकती है ? इसीलिए नहीं हुई। 'राज' केवल औपचारिक शासन की भाषा जानता-पहचानता है, सुनना और समझना चाहता है। आराधना, ममता, सौहार्द की भाषा के अयोग्य है 'राज'। इसीलिए 'ब्रजभाषा' राजभाषा नहीं बनी। 


मरुप्रदेश अरावली पर्वत के दानों ओर है, इसलिए मरुवाणी, मारवाडी और राजस्थानी भाषा अरावली के पूर्व और पश्चिम दोनों में विराट् भाषा रही है। इसमें कृषि विद्या, पशुपालन विज्ञान, उद्योगपतिओं की उद्यम विद्या, व्यापारियों-व्यावसायियों का व्यापार-वाणिज्य विद्या, शूरवीरों की युद्ध विद्या, प्रेमी-प्रेमिकाओं की प्रेम श्रृंगार विद्या, अकाल और दुर्मिक्ष से पीडत मरुभूमि की कारुणिक गाथा, सामाजिक जीवन तथा सांस्कृतिक जीवन नीति, निर्गुण और सगुण भक्ति की आराधना विद्या, राजस्थानी भाषा में अपनी सशक्त एवं हृदयग्राही अभिव्यक्ति उजागर करती रही है इसका साहित्य विपुल एवं विराट् है। इस असाधारण क्षमता वाली भाषा को ही राजस्थानी भाषा कहा जाता है।
ज्यादातर लोग राजस्थानी भाषा को हिन्दी एक एक उपभाषा अथवा विभिन्न अंचलों में बोलियों में विभक्त बोली अथवा भाषा मानते हैं। वे ही यह कुप्रचार भी करते हैं, हाडौती, ढूँढाडी, मेवाती, शेखावाती, बीकानेरी, मेवाडी, और बागडी में आपस म कोई साम्य नहीं है। यह तो सर्वविदित है कि संसार भर में बारह कोस में बोली के उच्चारण बदल जाते हैं और उच्चारण के साथ भाषा का शब्द समूह, अक्षर समूह कुछ अंशों में बदल जाता है। लेकिन वीरगाथा काल का डिंगल काव्य और उसकी समृद्ध परम्परा केसरीसिंह जी बारहठ, उदयराज जी उज्ज्वल, शक्तिदान जी कविया तथा नाथूदान जी महियारिया तक अक्षुण्ण चली आई। आधुनिक राजस्थानी में गणेशीलाल व्यास 'उस्ताद', सुमनेश जी जोशी, चन्द्रसिंह जी बादली, कन्हैया लाल जी सेठिया, गजानन वर्मा, मेघराज मुकुल, रेवतदान चारण, सत्यप्रकाश जी जोशी, रघुराज सिंह हाडा, बुद्धिप्रकाश पारीक, कल्याण सिंह राजावत, डॉ. शान्ति भारद्वाज 'राकेश', प्रेमजी प्रेम, अर्जुनदान जी चारण आदि कवियों की भाषा डिंगल की समृद्ध परम्परा में जुडाव पैदा करती हुई जिस राजस्थानी भाषा का स्वरूप ग्रहण करती है, वह अरावली पर्वत के पूर्व और पश्चिम में समान रूप से समझी, बोली और लिखी जाती है।
जो लोग राजस्थानी को विभक्त बोलियों की भाषा मानते हैं और आरोप लगाते हैं कि इसका कोई मानक स्वरूप नहीं है वे यह नहीं जानते कि भारोपयीय भाषा समूह में विभक्ति प्रधान भाषाओं में पृथकता का लक्षण क्या है ? हिन्दी के दुराग्रही आन्दोलनकारी ये नहीं बता सकते हैं कि हिन्दी की ?का? नाम की विभक्ति राजस्थानी भाषा में 'रा', गुजराती भाषा में 'ना', मराठी में 'च्याँ' और बंग्ला भाषा में 'अमार' का 'आर' कैसे हो जाती है। वे विभक्ति प्रधान भाषाओं में पृथकता का कोई भी लक्षण व्याख्यायित नहीं कर पाते। उडया भाषा, बंग्ला भाषा और असामिया भाषा में कारक चिह्वों का विभाजन कैसे होता है, इसलिए ये मति अन्ध लोगों को बताने के लिए यह संकेत पर्याप्त है कि विभक्ति प्रधान भाषाओं में पृथकता के स्वरूप को पहचानने के लिए 'सुप्' अर्थात संज्ञा की विभक्ति और 'तिन्' अर्थात क्रिया की विभक्ति को समझना चाहिए क्योंकि इसी आधार पर विभक्ति प्रधान भाषाओं का पृथकत्व सिद्ध किया जाता है। राजस्थानी भाषा और हिन्दी भाषा का तथा ब्रज भाषा का 'सुप्'-'तिन्' अलग-अलग है। इसलिए इन भाषाओं की पृथकता सिद्ध है और राजस्थानी भाषा एक पृथक भाषा है जो प्राक वैदिककालीन जनभाषा से निकली हुई है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि वेद मंत्रों का संग्रह पुष्कर सरोवर के तट पर हुआ था और अन्तिम वेद अथर्ववेद का संग्रह जिन अथर्वण दधीचि के आश्रम में हुआ, वे प्राकवैदिक ऋषि महर्षि दधीचि दधिमति क्षेत्र में हुए थे। यह क्षेत्र नागौर जले में है जो पुरातन मरु धन्वा और वर्तमान थार के मरुस्थल का अंग है और अरावली पर्वत के पश्चिम में स्थित है। राजस्थानी भाषा का सीधा सम्बन्ध वैदिक भाषा से है, संस्कृत भाषा से नहीं। संस्कृत वस्तुतः भाषा नहीं विद्या है जिसमें उत्तर वैदिक कालीन महापुराण, रामायण, महाभारत और वेद व्यास रचित अट्ठारह पुराणों की रचना हुई थी। पुराण काल तक जिस संस्कृत विद्या की रचना हुई उसकी भाषा में महर्षि पाणिनि ने महर्षि पतंजलि ने भाषा का स्वरूप प्रदान किया। यह काल अनेक उच्चस्तरीय कवियों के सर्जन का काल था, जिसमें महाकवि माघ से लेकर कालिदास तक रचना करते रहे। इस भाषा को व्याकरण सिद्ध करने के लिए अनेक वैयाकरण, पाणिनि और पतंजलि के बाद होते रहे लेकिन संस्कृत भाषा के 'सुप्', 'तिन्' अलग हैं और उसमें द्विवचन संज्ञा में और क्रिया में, सर्वनाम में उपस्थित है, इसलिए संस्कृत भाषा गणित के समान ही परिपूर्ण भाषा है, उसमें धातु रूप से शब्द के निर्माण की वैज्ञानिक प्रणाली विकसित हो गई। वह बोलचाल की भाषा जैसी भाषा नहीं है, यद्यपि उसकी सैकडों उक्तियाँ जनकण्ठ में व्याप्त हैं तथापि संस्कृत भाषा कभी भी लोकभाषा नहीं रही, क्योंकि यह भाषा अध्ययनशील उच्चवर्ग की भाषा रही है। वैदिक भाषा, प्राकृतों और अपभ्रंशों, पालि आदि बोलियों में प्रवाहमयी रही है। संस्कृत भाषा में उच्चारण करते हैं जबकि स्त्रियाँ और निम्न वर्ग के लोग प्राकृत का उच्चारण करते हैं, हमारी बात संस्कृत नाटकों से सिद्ध होती है।
राजस्थानी भाषा की वर्णमाला वैदिक भाषाओं से प्रवाहित होती है। राजस्थानी भाषा का 'ल' मराठी के 'ल' और वैदिक भाषा की 'ऋ' की ध्वनियाँ उच्चारण के स्तर पर लगभग एकाकार रूप ग्रहण कर लेती हैं। वैदिक भाषा में 'ऋ' का प्रयोग बाद में बन्द हो गया लेकिन राजस्थानी भाषा में 'ल' और 'ळ' दो पृथक ध्वनियाँ हैं। हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी की वर्णमाला और शब्दों की रचना, वाक्यों के गठन के प्रक्रिया मिलती जुलती सी है पर ?सुप्? और ?तिन्? के भेद से, प्रत्यय और उपसर्गों के भेद से ये भाषाएँ अलग तरह से विकसित होती रही हैं। हिन्दी देश की सभी प्रान्तीय भाषाओं से शब्द समूह ग्रहण करती रही है और मुखसुख के कारण हिन्दी को इन शब्द समूहों के मिलने से बल मिला है। मुखसुख की शक्ति से हर विभक्ति प्रधान भाषा सशक्त होती है और वह किसी भी भाषा से अपने भीतर शब्द समूह लेती है। राजस्थानी भाषा भी इसका अपवाद नहीं है।
वाक्य गठन पर आरम्भिक हिन्दी में वह सन्तुलन नहीं था, जो अंग्रेजी में 'सब्जेक्ट' 'प्रेडिकेट' के आधार पर दिखाई देता है। हिन्दी में अंग्रेजी के 'सब्जेक्ट'-'प्रेडिकेट' की प्रणाली को पहले ग्रहण कर लिया और भारोपीय परिवार की भाषाओं ने 'उद्देश्य' और 'विधेय' के रूप में वाक्य रचना के अंग्रेजी भाषा के सिद्धान्तों को कमोवेश अपना लिया और इस प्रकार उत्तर भारत की सभी भाषाओं में 'उद्देश्य' 'विधेय' की प्रणाली के आधार पर वाक्य रचना होती रही है। काल, वचन आदि भी अंग्रेजी की वाक्य रचना प्रणाली के आधार पर होने लगी। अभी तक भी कई भाषाओं में अंग्रेजी के 'रैन एण्ड मार्टिन' जैसी व्याकरण नियम प्रणाली उदाहरण प्रणाली और अपवाद प्रणाली विकसित नहीं हुई है। हिन्दी और भारोपीय परिवार की जो भाषाएँ महाराष्ट्र से लेकर पूरे उत्तर भारत में और पूर्वी भारत में बोली जाती हैं उनमें नए नियमों की सृष्टि क्षेत्र की प्रकृति, स्वभाव और आवश्यकता के अनुसार ही होती रही है। यह कार्य हिन्दी के विद्वानों को प्रान्तीय भाषाओं को महत्त्व देने से होगा, उनका विरोध करने से नहीं। राजस्थानी भाषा में एक वृहद् शब्दकोश, कहावत कोश तथा अनेक काव्य धाराएँ प्रचलित हैं। हिन्दी के विद्वान लेखकों को इन्हें स्वीकार करना चाहिए और अनुभव सिद्ध प्रयोगों को यथोचित स्थान देना चाहिए और उसे रससिक्त करना चाहिए।
राजस्थानी शब्द कोश के निर्माण का कार्य वर्तमान में महामहोपाध्याय रामकरण असोपा ने प्रारम्भ किया था जिसे उनके योग्य शिष्य श्री सीताराम लालस ने पूर्ण किया। इसी प्रकार राजस्थानी कहावतों के संग्रह का काम श्री लक्ष्मीलाल जोशी ने प्रारम्भ किया था और भी कई लोगों ने किया है पर अभी इस हेतु सन्तोषजनक कार्य शेष है। लोक संस्कृति के विविध प्रसंगों को पण्डित मनोहर शर्मा, कन्हैयालाल सहल, नरोत्तम स्वामी, रानी लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत, प्रो. कल्याण सिंह शेखावत, कोमल कोठारी आदि ने निरन्तर अग्रसर किया है। आकाशवाणी से राजस्थानी में समाचार प्रसारण में वेद व्यास की महती भूमिका रही है, यद्यपि दूरदर्शन पर भी राजस्थानी समाचार और कार्यक्रमों का प्रसारण होता है पर तन्मयता, तल्लीनता और तत्परता का अभाव दृष्टिगोचर होता है। राजस्थानी भाषा में दैनिक समाचार पत्र भी अभी प्रकाशित नहीं हो रहा है।
भारत के संविधान के निर्माण के समय हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा का स्थान दिया गया और अंग्रेजी को पन्द्रह वर्ष तक लागू रहने का प्रावधान था उस समय आठवीं अनुसूची में चौदह भाषाएँ थीं बाद में तेईस दिसम्बर दो हजार तीन तक आठ और क्षेत्रीय भाषाओं को जोडा गया अब कुल बाईस भाषाएँ आठवीं अनुसूची में हैं। राजस्थानी भाषा को निकट भविष्य में आठवीं अनुसूची में लिए जाने की पूरी - पूरी सम्भावना है, आवश्यकता इस बात की है कि राजस्थानी भाषा में भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, प्राणिशास्त्र, वनस्पति शास्त्र तथा अन्तरिक्ष विज्ञान और कम्प्यूटर विज्ञान पढाया जा सके, राजस्थानी भाषा में ही प्रशासन भी चलाया जा सके तभी राजस्थानी भाषा की आठवीं अनुसूची में आने की सार्थकता होगी। 

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