डॉ. हरिन्दर कुमार
राजस्थान की धरती जानदार और शानदार सूरमाओं और कवियों से भरी पडी है सन् १८५७ में भी जब पूरा देश स्वातन्त्र्य चेतना से आन्दोलित हो रहा था, तब भी राजस्थान के कुछेक अंग्रेज के पृष्ठपोषक देशद्रोही नरेशों को छोड कर सर्वत्र उनके विरुद्ध आक्रोश की तेज हवायें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में चल रही थीं। इसी कडी में एक महाकवि शंकरदान सामोर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
प्रसिद्व कवि शंकरदान सामोर ने कविराजा बाँकीदास के कर्तृत्व को अपने गीतों का विषय बना कर लिखा -
''दगो धारियो डूंग सूं सोबै पाकडै छाँवणी दोला,
लोह लाल लंगरां अमाप फौजां लेर।
लाखां मुखाँ आठों सोवा ऊपरै सोभाग लीधो,
जोम अंगी सींग ने आगरै कीधो जे।।१
राजस्थान के इस राष्ट्रकवि ने मुखर स्वर में विद्रोही शासन से देश को मुक्त कराने के लिये जनता का आह्वान किया। ये इस संग्राम की महत्ता को भली भाँति समझते थे, क्योंकि यह देश को आजाद कराने के लिए बहुत अच्छा अवसर था -
''आयौ औसर आज, प्रजा परव पूरण पालण
आयौ औसर आज, गरब गोरां रौ गालण
आयौ औसर आज, रीत राखण हिंदवाणी
आयौ औसर आज, विकट रण खाग बजाणी
फाल हिरण चुक्या फटक, पाछौ फाल न पावसी
आजाद हिन्द करवा अवर, औसार इस्यौ न आवसी''२
(आज प्रजा का रक्षक बन कर उसका निर्वाह करने का अवसर आया है। आज तो इन गोरे अंग्रेजों के अपराजित होने के अभिमान को दूर करने का अवसर आया है। आज तो हिन्दुओं के कुल की परंपरा और नीति-रीति बनाये रखने का समय आया है। आज तो युद्धभूमि में वीरता से तलवार घुमाने का अवसर आया है। आज अगर इस पल का लाभ लेना सैनिक चूक जायेंगे, तो फिर ऐसा समय कभी भी नहीं आएगा। अपने देश हिन्दुस्तान को आजाद करने के लिए ऐसा अवसर फिर कभी भी नहीं मिलेगा, इसीलिए सब लोग वीरता से लड लीजिए।)
कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों ने राजा और प्रजा दोनों को लूटने की नीति अपनाई। अतः शंकरदान सामोर ने बहुत स्पष्ट रूप में अंग्रेजों की नीति खुली कर दी है -
''महह लूटण मोकला, चढ्या सुण्या चंगेझ,
लूटण झूंपा लालची, आया बस अंगरेज।''
(भारतवर्ष पर चंगेज खाँ जैसे अनेक शत्रु इसके पूर्व आये और उन्होंने राजमहलों में लूट चलाई है, किन्तु कुटियों अर्थात् गरीबों को लूटने की लालच वाले तो केवल ये अंग्रेज ही हैं।)
१८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम में कविराज शंकरदान सामोर ने लोक-कवि बन कर पूरे राजस्थान का ध्यान आकर्षित किया।
उस समय बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा और जयपुर जैसे बडे राज्यों ने हिम्मत प्रदर्शित नहीं की, किन्तु कवि शंकरदान जी ने अपना चारण-धर्म अदा करते हुए स्पष्ट रूप से सरेआम एक मशालची का काम किया।
भरतपुर के वीरों के द्वारा प्रदर्शित अप्रतिम शौर्य की प्रशंसा करता हुआ यह काव्य तो लोकगीत के रूप में अमर हो कर पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हुआ था -
''फिरंगा तणी अणवा फजेत, करवाने कस कस कमर,
जण जण बण जंगजीत, लड्या ओ धरा लाडला।''
(फरंगियों की फजीहत, पराजित करने हेतु सभी शूरवीरों ने कमर कसी और युद्ध में कूद पडे। इस धरा के लाडले ऐसे सब-के-सब वीर संग्रामजित् योद्धा बन कर जूझे)। भरतपुर की भव्य शहादत की प्रशंसा करते हुए कवि ने मानो अंग्रेजों को स्पष्ट शब्दों में यह चेतावनी दे डाली कि तुम्हारी सत्ता अब आगे यहाँ नहीं चलेगी। अतः तुम हमारे देश से सीधे वापस जाओ। कवि ने भरतपुर को �राजवी का दशरथनंदन� कह कर यह दर्शाया है, कि लोक-हृदय में एक देशप्रेमी का कौन-सा स्थान होता है, देखिए -
''गोरा हट जया भरतपुर गढ बाँको,
नंहुं चालेलो किले माथै बस थांको,
मत जांणिजे लडै रै छोरो जाटां को,
ओतो कुँवर लडै रे दसरथ जांको।''३
(हे गोरो, अर्थात् अंग्रेजो!) यहाँ से तुम वापस चले जाओ, क्योंकि भरतपुर का कला अजेय है। उस पर कभी भी तुम्हारा प्रभाव नहीं पडेगा। तुम यह मत मानना कि तुम्हारे विरुद्ध मात्र जाट योद्धा ही लडते हैं। वे तो दशरथनंदन जैसे मानो साक्षात् भगवान् राम ही हैं।
कविराज शंकरदान सामोर की काव्य-वाणी में लोगों को शस्त्र की शक्ति का चाक्षुष प्रत्यक्ष या दर्शन हो, यह बात पूरी तरह से स्वाभाविक है। राष्ट्रप्रेमियों के लिए इस श्रेष्ठ कवि के ये सभी गीत कुसुमों-से कोमल थे, परन्तु देशद्रोहियों के लिए तो ये बंदूक की गोली के ही समान हैं, इसीलिए तो किसी से कहा है -
''संकरिये सामोर रा, गोली हंदा गीत,
मितर सच्चा मुहक रा, रिपुवां उल्टी रीत।''४
(कविराज शंकरदान सामोर के गीत तो बंदूक की गोली जैसे हैं। ये देशप्रेमियों के लिए मित्रवत् हैं लेकिन देशद्रोहियों के लिए तो ये कट्टर शत्रु हैं।)
सामोर की दृष्टि में सम्पूर्ण भारत था। इस स्वतन्त्रता-संग्राम में भाग लेने वाले उनको अपनी ओर आकर्षित करते हैं। तात्या टोपे सन् १८५७ के नायक के रूप में उभर कर आये। उनके जैसे जुझारू नायक की उन्होंने हर संभव सहायता की। उनके अदम्य साहस, शौर्य तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न होने जैसे उनके सभी स्वभावगत गुणों को उन्होंने अपनी लोकवाणी में ढाल कर यों सुरीले शब्दों में कहा है -
''जठै गयौ जंग जीतियौ खटके बिन रणखेत
तकडौ लडयौ तांतियौ हिंदथान रै हेत
मचायौ हिन्द में आरवी तहलको तांतियौ मोटो
छोटो जेम घुमायौ लंक में हणू धोर
रचायौ रुजंनी रजपूती रौ आखरी रंग
जंग में दिखायौ सुवायौ अथाग जौर
हुय हताश रजपूती छंडयौ छत्रियां हाथ
साथ चगौ सोधियौ दिक्खणी महासूर
पलकती अकाश बीज कठै ई जावती पडै
छडै तांतियै री व्हैगी इसी ही छलांग''५
सलेदी के कानसिंह को श्रीकृष्ण से उपमित करते हुए उन्होंने उसका यशोगान इस प्रकार किया है -
''हद कर ग्यो कान सलेदी को, हद कर ग्यो।
एक तो कान बिरज को वासी, दूजो कान सलेदी को।
लूट तिराय, त्याहवली लूटी, लूट्यौ बुंगलो ठेडी को।
हद कर ग्यो .......
ब्रज को कान तौ काल कंस कौ, ओ तो काल फरंगी को।
ब्रज को कान महीदधि लूटै, ओ तो फौज फिरंगी को
हद कर ग्यो ...... ''
उनके द्वारा लिखित 'डूंगरसिंह जवाहर सिंह शेखावत' के गीत की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
''जीते फिरंगाण साहाँ केता बेडया जाडा।
थरू किल्ले भेडया समरा भडा थाट।।
जलाबन्द जाहू बार छेडया लाठ नूं जंगा।
केवाड पाप सूं सेखा हंडिया कपाट।।''६
ताँत्या टोपे पर लिखे गये उनके गीत की कुछ पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं -
''जठै गियौं जंग जीतियो, खटकै बिण रणखेत।
तकडौ लडयौ तांतियौं, हिन्द थान रै हेत।।
मचायो हिन्द में आखी, तहल कौ तांतियो मोटो,
धोम जेम घुमायो लंक में हणूं घोर।
रचाओ ऊजली राजपूती रो आखरी रंग,
जंग में दिखायो सूवायो अथग जोर।
पलकती अकास बीज कठै ही जीवती पडै,
छडै तांतिये री व्हैगी, इसी ही छलांग।
खलकती नंध्या रा खालमांय हूँ तो पा'उ खडै,
लडै इणां विधि लाखा हूँत एक लांग।''७
ये पंक्तियाँ ताँत्या टोपे की युद्ध-नीति का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हैं। श्री जीवन सिंह के अनुसार ''राजस्थान की १८५७ की परिस्थितियों में विद्रोह की आग व्यापक स्तर पर भले ही दिखाई न देती हो, लेकिन यहाँ की जनता के मन को टटोलने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के अन्य क्षेत्रों की तरह स्वाधीनता और मुक्ति की अनेक चिन्गारियाँ यहाँ भी जगह-जगह अपने-अपने ढंग से सुलग रही थीं। उसका स्वरूप स्थानीय न हो कर, राष्ट्रीय था। ऐसा नहीं होता तो राजस्थान का तत्कालीन क्रान्तिकारी कवि शंकरदान सामोर अपने गीत ः ताँत्या टोपे रौ में ताँत्या टोपे का उल्लेख 'हिन्दी-नायक' के रूप में न करता।''
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सन् १८५७ ई. के स्वाधीनता-संग्राम में अंग्रेज सेना को अपने रणकौशल एवं साहस से आश्चर्यचकित कर दिया था। उन्होंने भारतीय जन-मानस के सम्मुख यह मिसाल कायम कर दी थी कि आवश्यकता पडने पर नारी भी नेतृत्व, निर्णय एवं साहस में किसी से कम नहीं है। रानी लक्ष्मीबाई का चरित्र इतना सशक्त है कि उस पर कोई भी भारतीय गर्व कर सकता है। कवि उन्हें कुछ इस तरह स्मरण करते हैं -
''हुयौ जांण बेहाल भाल हिन्द री भौम रै।
झगडौ जिन भुज लिछमी झाँसी री लडी।''८
१८५७ के समय भारतीय जनजीवन में अंग्रेजों का मुखर विरोध था। आम जनता अंग्रेजों के साथ-साथ उन सामंतों और राजाओं के प्रति भी तीव्र आक्रोश था, जो अपनी स्वार्थलिप्सा के वशीभूत हो कर राष्ट्रहित को तिलाँजलि दे कर अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। यह आक्रोश देश के विभिन्न भागों में दिखाई पडता है। राजस्थान के डूँगरपुर में भी अंग्रेजों के प्रति अत्यन्त तीव्र रोष फैला हुआ था, क्योंकि अंग्रजों ने कुछ जागीरदारों से मिल कर माहरावल जसवंतसिंह को गद्दी से अपदस्थ करके बनारस भेज दिया था। जिन जागीरदारों ने अंग्रेजों का साथ दिया, उन पर कटाक्ष करते हुए तत्कालीन कवि दूलजी ने लिखा है -
''लाणत लूण हराम जसवंत में कीधी जका,
कुल विंदरा रो काम साबत तो में 'सादला'।
हमके 'अजमल'तोत अंसधारी बागड इला,
गढ छोडे गहलोत जातो नह रावल 'जसो'।
ओढे सिर पर औढणी सह भड मांणी सीख,
तूरका रा ताबूत ज्यूँ, मेल चल्या मछरीक।
जसवंत ने 'गिणगौर' ज्यूँ मेल तीरथ मंझार,
आया सावण गावता, सांभरियां सिरदार।''
साम्राज्यवादी अंग्रेजों के विरुद्ध जनसाधारण को जाग्रत करने में लोकगीतों की एक अहम् भूमिका रही। इन गीतों में राष्ट्रीय मुक्ति के नायकों की शौर्य-गाथा ने लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया।
१. ''ढोल बाजै, थाली बाजै और बाजै बांकियो,
अजेंट ने ओ मारने, दरवाजे नखियो, जूझे आउवो''
२. ''वाणिया वाली गोचर मांय, कालो लोग पडयो ओ
राजा जी रे भेलो तो फरंगी लडयो ओ काली टोपी रो
बारली तोपां रा गोला, धूड गढ में लागै हो
मायली तोपां रा गोला, तम्बू तौडे ओ, कै सल्लो आइवो''
अंग्रेजों के बहुमुखी शोषण से भारतीय जनमानस कराह उठा था। १८५७ में जहाँ आक्रोश क्रान्ति को जन्म दे रहा था, वहीं वेदना ब्रिटिशों के प्रति घोर घृणा उत्पन्न कर रही थी। इस समय के लोकगीतों में अंग्रेजी सरकार की साम्राज्य - लिप्सा पर तीखे व्यंग्य-बाण छोडे गये हैं। यथा -
''म्हारों राजा तो भोलो, साभर तो दे दीनी अंग्रेज ने
म्हारा टाबर तो भोला
रोटी तो माँगे, तीखे लूण री।''९
पूर्वोक्त लेख के अन्त में निष्कर्षस्वरूप श्री देवेन्द्र गुप्ता की टिप्पणी है, ''सन् १८५७ ई. के इस महासंग्राम में शासक से ले कर जनसाधारण तक में मातृभूमि के प्रति गहरा जुडाव दिखाई पडता है। इस विप्लव में लोक-कवियों और लोकगीतों की अहम् भूमिका थी। इन्होंने जहाँ एक ओर लोगों में चेतना जाग्रत की, वहीं लोगों को भेदभाव के विरुद्ध एकजुट होने के लिए प्रेरित किया।''१०
चारण कवि श्री कानदास महेडु का सन् १८५७ समर में विशेष योगदान माना जाता है। यह अनुमान है कि हो सकता है उन्होंने सन् १८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम में गुजरात के राजवीओं को अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन छेडने के लिए प्रेरित किया हो और इसके कारण उनको फाँसी की सजा भी प्रदान की गई हो। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र उठाने वाले कवि सूरजमल्ल को उन्होंने आश्रय दिया था। इसके कारण उनसे उनका पाला गाँव छीन लिया गया था। इस संदर्भ में कुछेक दस्तावेज भी उपलब्ध होते हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रमण धारैया ने यह उल्लेख किया है कि ''खेडा जला के डाकोर प्रदेश के ठाकुर सूरजमल्ल ने १५ जुलाई १८५७ के दिन लुणावडा को मदद करने वाली कंपनी सरकार के विरुद्ध आन्दोलन किया था। बर्कले ने उनको सचेत किया था, किन्तु सूरजमल्ल ने पाला गाँव के जागीरदार और अपने मित्र कानदास चारण और खानपुर के कोलीओं की सहायता से विद्राह किया था। मेजर एन्डुजा और आलंबन की सेना के द्वारा सूरजमल्ल और कानदास को पकड लेने के बाद उनको फाँसी की सजा दी गई और सूरजमल्ल मेवाड की ओर भाग निकले थे। आलंबन और मेजर एन्डुजा ने पाला गाँव का सम्पूर्ण नाश किया था।''११
डॉ. आर. के. धारैया ने '१८५७ प्द ळनरंतंज' नामक अंग्रेजी ग्रंथ में भी पूर्वोक्त जानकारी दी है और अपने समर्थन के लिए 'पोलिटिकल डिपार्टमेंटल वॉल्यूम्ज' ;च्वसपजपबंस क्मचंतजउमदजंस टवसनउमेद्ध से आधारभूत सन्दर्भ प्रस्तुत करके यह जानकारी दी है। इससे सच्ची जानकारी मिलती है कि कानदास महेडु ने १८५७ के स्वातन्त्र्य-संग्राम में अपना विशेष योगदान किया था। अलबत्ता यहाँ ज्ञदंदकें बींतंद और च्ंसं का अंग्रेजी विकृत नाम है।
अंग्रेजों ने हमारे यहाँ अनेक गाँवों के नाम अपने ढंग से रखे हुए हैं। इसके लिए यहाँ बोम्बे, बरोडा, खेडा, अहमदाबाद, भरूच, कच्छ इत्यादि नामों को देखा जा सकता है। महेडु अर्थात् कानदास चारण और च्ंसं अर्थात् पाला एक ही हो सकते ह। 'चरोत्तर सर्वे संग्रह' के लेखक पुरुषोत्तम छ. शाह और चंद्रकांत कु. शाह भी यह उल्लेख करते हैं कि ''कानदास महेडु ः व. सामरखा ज. १८९३ संत कवि के रूप में सुप्रसिद्ध हुए थे। १८५७ के आन्दोलन के बाद उनको आंदोलनकारियों की मदद करने के कारण पकड लिया गया था। कहा जाता है कि कवि ने जेल में देवों और दरियापीर की स्तुति गा-गा कर अपनी जंजीरें तोड डाली थीं। इसी चमत्कार से प्रभावित हो कर अंग्रेज सरकार ने उनको छोड दिया था।
इस प्रकार राजस्थान में शंकरदान सामोर के अतिरिक्त भी अन्यान्य कवियों और लोकगीतकारों ने सन् १८५७ में देश द्रोहियों की रुष्टता का सामना करना था और दूसरी ओर सशक्त ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेना था, फिर भी उन्होंने साहस और निर्भयता का कहीं और कभी भी परित्याग नहीं किया था। आज देश भर सन् १८५७ के स्वातंन्त्र्य-संग्राम और संघर्ष की १५०वीं जयन्ती मना रहा है और साथ ही अपने देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति की ६०वीं जयन्ती मना कर अभी हमने सुख की साँस ली है। अतः अब हमें चाहिए कि हम अन्य राज्यों की ही तरह से राजस्थान के देशभक्त कवियों और लोकगीतकारों की मूल्यवती देन को स्मरण करें और अपने लेखादि से उनका आत्मबलिदान और त्याग आदि के प्रति श्रद्धाँजलियाँ देने में कोई भी कृपण और विलम्ब न करें, तभी हम इस सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध प्रदेश के प्रति अपने कर्त्तव्य का अच्छी तरह से सम्पादन करके भारतमाता और देवी शारदा के प्रति अपने ऋण से उऋण हो सकते हैं।
No comments:
Post a Comment