Friday 16 September 2011

राजस्थानी लोकगीतों में समकालीन जीवन : डॉ. मंगत बादल


डॉ. मंगत बादल 
लोकगीत किसी देश की सांस्कृतिक धरोहर होते हैं। इनमें इतिहास के साथ-साथ समकालीन जीवन की धडकन भी होती है। ’पाँच कोस पर पानी बदले बारह कोस पर बानी‘ के मतानुसार लोकगीतों का अध्ययन करने से पता चलता है कि इनमें अलग-अलग स्थानों पर कुछ भाषायी परिवर्तन तो मिलते हैं किन्तु विषयवस्तु में विशेष अन्तर नहीं आता। विवाह, पुत्र-जन्म, पर्वों, त्योहारों या मांगलिक अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीतों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। एक वे जो अवसर के अनुकूल हर बार उसी रूप में गाए जाते हैं जैसे देवी-देवताओं के गीत, रतजगे में गाए जाने वाले गीत आदि। कुछ ऐसे लोकगीत भी होते हैं जो कुछ समय तो प्रचलित रहते हैं फिर उनका स्थान दूसरे लोक गीत ले लेते हैं। ऐसे गीतों में बदलते हुए समकालीन जीवन की घटनाओं का चित्रण होता है। 
महर्षि दयानन्द ने नारी जाति के उद्धार के लिए अनेक कार्य किए। उनका नाम किसी अनाम गीतकार ने लोकगीतों में जोड दिया। शादी के अवसर पर ’बना-बनी‘ के गीतों में स्वामी जी का नाम किस आदर से लिया जाता है। 
सुसरै उढाई बनी नै चून्दडी, 
ढकियों ढकियो सब परिवार, 
आज बधावो रस दयानन्द रो। 
नायक परदेस में नौकरी के लिये जाना चाहता है किन्तु नायिका उसे रोकना चाहती है। इसलिये वह कहती है कि यदि उसे (नायक को) घर खर्च के लिए धन की आवश्यकता है तो वह परदेस न जाए। इसके लिये वह अपना गलहार, अँगूठी और अन्य गहने प्रस्तुत कर देती है। फिर भी नायक नहीं मानता। वह कहता है कि ’’वह परदेस में जाकर खूब धन कमाएगा और नायिका जो भी माँगेगी उसे लाकर देगा।‘‘ इस बात पर नायिका कहती है - 
बिणजारा रे लोभी ! धुअैं री ल्याई पोट, पाणी रो ल्याई बुलबुलो। 
बिणजारा रे लोभी ! ल्याई क्ँवारी रो दूध, पूत जे ल्याई बांझ रो। 
बिणजारा रे लोभी ! धरती रो ल्याई घाघरो, मगजी लगवागे रेल री। 
(अर्थात् हे लोभी बनजारे ! परदेस से तू मेरे लिए धुएँ की गठरी और पानी का बुलबुला लेकर आना। हे लोभी बनजारे ! तू कुमारी कन्या का दूध और बंध्या का पुत्र लेकर आना। हे लोभी बनजारे ! तुम मेरे लिये धरती का लहंगा लाना जिसमें रेलगाडी की मगजी हो।) जन जीवन में कुमारी का दूध, बंध्या का पुत्र आदि मुहावरे प्रसिद्ध हैं वहीं मगजी के रूप में रेलगाडी लगवाना देश में रेलगाडी के आगमन का सूचक है। 
इन लोकगीतों में चाय को भी सम्मान दिया गया है। चाय की ही भाँति चाय का लोकगीत भी खूब प्रचलित और प्रसिद्ध है। बीसवीं सदी के चौथे-पाँचवें दशक में जब राजस्थान के गाँवों में चाय का प्रचलन कम था, लोग ’छाछ-राबडी‘ आदि पीते थे किन्तु जब गाँवों में भी चाय का प्रचलन हो गया और घर-घर में चाय बनने लगी तो इसने लोकगीतों में भी स्थान पा लिया - 
पे‘लां तो पींवता छाछ राबडी, 
अब बिलैतण चा बपराई, 
बिलैतण चा म्हानै घणी भाई। 
बनी अपने बने से कहती है कि ’’हे बना ! पहले तो लोग छाछ (मट्ठा) राबडी आदि पीते थे किन्तु अब लोगों ने घरों में विलायती चाय ’बपरा ली‘ (ले आये हैं) हैं। यह विलायती चाय मुझे बहुत भाती (अच्छी लगती) है। यही नहीं चाय के एक अन्य गीत में तो इसके बनाने की विधि का भी वर्णन है तथा यह भी शिकायत कि अब दुनिया को इसकी लत लगाई है - 
च्यार पत्ती चाय री, पतीलो पाणी रो, 
दुनियां नै बैल पडग्यो तातै पाणी रो। 
संसार में चाय बडी बलवान है इसे बच्चे, बूढे यहाँ तक कि ’जोध जवान‘ भी पीते हैं। इसके पीने से गर्मी-सर्दी मिट जाती है तथा सिर दर्द भी गायब हो जाता है। चाय के फायदे गिनवाने के साथ-साथ इस गीत में भी चाय की निर्माण की विधि बतलाई गई है - 
छैल बनै रै घडयाँ सोह्वै 
काठी पर उडै गुलाल, जगत में चाय बडी बलवान। 
टाबर भी पीवै बनडा, बूढा भी पीवै 
पीवै है जोध जवान, जगत में चाय बडी बलवान। 
गर्मी भी हटज्यै बनडा, सर्दी भी हटज्यै 
सिर रो दर्द मिट जाय, जगत में चाय बडी बलवान। 
दोय कप पाणी बनडा, दोय कप दूध रा 
चार चमच चीनी खांड, जगत में चाय बडी बलवान। 
भारत वर्ष में स्वतन्त्रता आन्दोलन बडे-बडे शहरों से लेकर छोटे-छोटे गाँवों और ढाणियों तक में फैल गया था। साथ ही फैला स्वतंत्रता संग्राम के नायकों गाँधी, नेहरू आदि का नाम भी। इन स्वतंत्रता के महानायकों के नाम आज भी लोकगीतों में सम्मान के साथ लिए जाते हैं - 
गाँधी जी भजायो फिरंगी 
भारत हुयो आजाद 
जै बोलो महात्मा गाँधी री 
जै बोलो बाबा गाँधी री। 
इसी प्रकार - 
नेहरू ने हिन्दुस्तान को आजाद कर दियो 
म्हां रै देस रो जगती में ऊँचो नाम कर दियो 
भोजन बणाया नेहरू ने खाणे के वास्ते 
खाणे के वक्त नेहरू ने इन्कार कर दियो।। 
भोजन करने से इन्कार करने का आशय किसी अनशन या भूख हडताल आदि से हो सकता है जिसकी ओर लोकगीत कार ने इंगित नहीं किया है। स्वतंत्रता के बाद गाँवों में नई रोशनी फैलने लगी। गाँव धीरे-धीरे प्रगति की ओर बढने लगे। नायिका ने जब पहली बार साईकिल देखी तो उसे आश्चर्य हुआ कि आदमी इसे कैसे चलाता है ? हरदम गिरने का खतरा बना रहता है। बनी अपने बने से कहती है - 
साईकिल री सवारी मत कर बनडा, 
पतली कमर बल खा जायेगी। 
गाँव में रेडियो का आगमन एक क्रान्तिकारी घटना थी। इस छोटे से डिब्बे में कैसे सारी दुनिया समा गई ? बनी अपने बने से माँग करती है - 
बना ! रबड रो रेडियों मंगाय दे रे, 
कोई टेसण लगादे मुलतान रो ! 
अंग्रेजी पहनावा भी शुरू-शुरू में ग्रामीणों के लिए कम आश्चर्यजनक नहीं था। कहते हैं किसी ग्रामीण को मार्ग में एक पतलून पडी मिल गई। उसने इस पोशाक को देखा किन्तु कुछ भी न समझ पाया। वह पतलून लेकर ’लाल-बुझक्कड‘ के पास गया। ’लाल बुझक्कड‘ ने भी पहले कभी पतलून नहीं देखी थी। उसने, उसे देख, परखकर निर्णायक स्वर में कहा- 
धान घालणै री कोथळयां 
या जेई रो म्यान ! 
अर्थात् ये अनाज डालने के लिय साथ-साथ सिली हुई दो कोथलियाँ है या जेली (कृषि उपकरण) की म्यान है। बाद में तो गाँव के लोग भी धीरे-धीरे इस पहनावे की ओर आकृष्ट हुए किन्तु अब भी इसे पहनने वाले हास्य-व्यंग्य के पात्र थे। प्रस्तुत गीत में देखिए किए प्रकार हास्य-व्यंग्य की छटा बिखेरी गई है - 
म्हांरी दादी सूट सिडवायो लीली मखमल रो 
ओढ-पहर दादी पाणी नै चाली 
रस्तै में मिलग्या दादो-सा 
अठै छोरियां खडी दोय-च्यार 
छोरियों आ बहू किण री ? 
दादा ! अै म्हांरा दादी सा ! 
दादा ! अै म्हांरा दादी सा ! 
म्हां रै दादै नै आगी रीस 
बुंगाली १ छंटवाय लई 
होको बीडी छोड सिगरेट सुलागय लई 
धोती कुडतो छोड पैंट सिलवाय लई 
बण ठण दादो गुवाड कानी चाल्या 
रस्तै में मिलग्या दादी-सा। 
बठै छोरा खड्या दोय-च्यार 
छोरो ! ओ बटाऊ कुण है ? 
छोरा बोल्या - 
दादी अै म्हांरा दादो-सा ! 
दादी अै म्हांरा दादो-सा ! 
उक्त गीत गाते समय गायिकाओं के बीच-बीच में ठहाके लगते रहते हैं तथा दादी की उम्र की महिलायें भी उनका साथ देती रहती हैं। स्वतंत्रता के बाद भ्रष्टाचार और महँगाई खूब बढे। इनकी झलक भी लोकगीतों में यत्र-तत्र मिल जाती है। मिलावटखोरों ने वनस्पति घी को देसी घी कहकर खूब बेचा। किसी फिल्मी गीत की तर्ज पर किसी अनाम गीतकार ने रच दिया यह गीत - 
जरा सामने तो आओ सेठ जी ! 
तेरी गुड की जलेबी का क्या भाव है ? 
यू छिप न सकेगा तेरा डालडा, 
खाने वाली की तबीयत खराब है ! 
विवाह में गहने, कपडे बनवाना, मिठाइयाँ बनवाना आम बात है किन्तु महँगाई इस कदर बढ गई है कि खरीद दार क्या करे ? देश की प्रधानमंत्री जब महिला (श्रीमती इन्दिरा गाँधी) हो तो महिलायें फिर उपालंभ देने से भी क्यों चूकें - 
इन्दिरा थां रै राज में, सोनै रो कांई भाव ? 
जमानो हद करग्यो ! 
सात सौ रिपियां तोलो सोनो 
बिण सूं कांईं बण जाय ? 
जमानो हद करग्यो ! 
लेकिन प्रत्युत्तर भी स्वयं ही दे लेती हैं - 
बनडै म्हां रै तांई डोरो बणज्यै 
बनडी रो नौसर हार ! 
जमानो हद करग्यो ! 
केवल सोना ही नहीं, चीनी और कपडा भी महंगे हैं - 
दस रिपियां किलो खांड हेली अे ! 
बिण सूं कांई बण जाय ? 
बनडै म्हांरे तांईं जलेबी बणज्यै 
बनडी तांई बण ज्यै लाडू - 
जमानो हद कर ग्यो ! 
इन गीतों पर सिनेमा के गीतों की तर्जों का असर भी पडा है। कुछ गीत तो जब सिनेमा और लोकगीतों की मिली जुली तर्ज में गाए जाते हैं तो पैरोडी भी लगते हैं। समकालीन जीवन पर यह सिनेमा का प्रभाव कहा जा सकता है। इस प्रकार पता चलता है कि इन लोक गीतों में मांगलिक अवसरों पर्वों, त्योहारों के अवसरों आदि पर प्रसन्नता प्रकट करने के भाव ही नहीं बल्कि समकालीन जीवन के यथार्थ की झलक भी है। ज्यों-ज्यों जमाना बदलता रहता है इन गीतों में भी परिवर्तन होता रहता है। लडकियों का स्कूल, कॉलिज जाना, साईकिल चलाना, घडी बाँधना, बने का अंग्रेजी बोलना, सिनेमा देखना आदि समकालीन जीवन के सभी पक्षों का चित्रण इन गीतों में मिलता है। टेलीविजन, मिक्सी, कैमरा, फोटो खींचना आदि भी इन लोकगीतों की विषयवस्तु बने हैं। इन गीतों के रचयिता स्वयं चाहे पर्दे के पीछे रहना ही पसन्द करें लेकिन जीवन का कोई भी पक्ष इनकी दृष्टि से छूटता नहीं।

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